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Home » हिन्दी » व्याकरण » अलंकार

अलंकार

Last Updated on July 3, 2023 By Mrs Shilpi Nagpal

Contents [hide]

  • 1 अलंकार
    • 1.1 (1) शब्दालंकार
      • 1.1.1 (1) अनुप्रास अलंकार
        • 1.1.1.1 अनुप्रास अलंकार के भेद :-
        • 1.1.1.2 (1) छेकानुप्रास अलंकार
        • 1.1.1.3 (2) वृत्यानुप्रास अलंकार
        • 1.1.1.4 (3) लाटानुप्रास अलंकार
        • 1.1.1.5 (4) अन्त्यानुप्रास अलंकार
        • 1.1.1.6 (5) श्रुत्यानुप्रास अलंकार
      • 1.1.2 (2) यमक अलंकार
      • 1.1.3 (3) श्लेष अलंकार
      • 1.1.4 (4) वक्रोक्ति अलंकार
      • 1.1.5 (5) पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार
      • 1.1.6  (6) पुनरुक्तिवदाभास अलंकार
      • 1.1.7 (7) वीप्सा अलंकार
    • 1.2 (2) अर्थालंकार
      • 1.2.1 (1) उपमा अलंकार
      • 1.2.2 (2) रूपक अलंकार
      • 1.2.3 (3) उत्प्रेक्षा अलंकार
      • 1.2.4  (4) अतिशयोक्ति अलंकार
      • 1.2.5 (5) मानवीकरण अलंकार
      • 1.2.6 (6) अन्योक्ति अलंकार
      • 1.2.7 (7) संदेह अलंकार
      • 1.2.8 (8) प्रतीप अलंकार
      • 1.2.9 (9) भ्रांतिमान अलंकार
      • 1.2.10 (10) विभावना अलंकार
    • 1.3 (3) उभयालंकार
      • 1.3.1 (i) संकर अलंकार
      • 1.3.2 (ii) संसृष्टि अलंकार
    • 1.4 (4) पाश्चात्य अलंकार
  • 2 हिन्दी व्याकरण

अलंकार

अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – अलम + कार ।

जिस प्रकार मनुष्य अपनी सुंदरता बढ़ाने के लिए विभिन्न आभूषणों का प्रयोग करते हैं उसी तरह काव्यों की सुंदरता बढ़ाने के लिए अलंकारों का उपयोग किया जाता है।

काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्त्वों को अलंकार कहते हैं।

या

काव्यों की सुंदरता बढ़ाने वाले यंत्रों को ही अलंकार कहते हैं।

 

अलंकार के चार भेद हैं –

(1) शब्दालंकार

(2) अर्थालंकार

(3) उभयालंकार

(4) पाश्चात्य अलंकार

(1) शब्दालंकार

शब्दालंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – शब्द + अलंकार। किसी काव्य में कोई विशेष शब्द रखने से सौन्दर्य आए और कोई पर्यायवाची शब्द रखने से लुप्त हो जाये तो यह शब्दालंकार कहलाता है।

शब्दालंकार में शब्द विशेष के कारण सौंदर्य उत्पन्न होता है। उस शब्द विशेष का पर्यायवाची रखने से काव्य सौंदर्य समाप्त हो जाता है 

शब्दालंकार के सात भेद हैं –

(1) अनुप्रास 

(2) यमक

(3) श्लेष

(4) वक्रोक्ति

(5) पुनरुक्तिप्रकाश

(6) पुनरुक्तिवदाभास

(7) वीप्सा 

(1) अनुप्रास अलंकार

जब किसी काव्य को सुंदर बनाने के लिए किसी वर्ण की बार-बार आवृति हो तो वह अनुप्रास अलंकार कहलाता है।

(1) तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।

(2) जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप।

(3) मैया मोरी मैं नही माखन खायो 

(4) चारु चंद्र की चंचल किरणें खेल रही हैं जल-थल में।

(5) कालिंदी कूल कदंब की डारन ।

(6) रघुपति राघव राजा राम। 

(7) मुदित महीपति मंदिर आए। 

अनुप्रास अलंकार के भेद :-

(1) छेकानुप्रास अलंकार

(2) वृत्यानुप्रास अलंकार

(3) लाटानुप्रास अलंकार

(4) अन्त्यानुप्रास अलंकार

(5) श्रुत्यानुप्रास अलंकार

(1) छेकानुप्रास अलंकार

जब एक या अनेक वर्णों की आवृत्ति एक बार होती है, तब ‘छेकानुप्रास’ अलंकार होता है।

(1) कहत कत परदेसी की बात।

(2) पीरी परी देह, छीनी राजत सनेह भीनी।

(3) कानन कठिन भयंकर भारी। घोर हिमवारी बयारी। 

(4)  रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै।

 

(2) वृत्यानुप्रास अलंकार

जहाँ एक वर्ण की अनेक बार आवृत्ति हो, वहाँ ‘वृत्यनुप्रास’ अलंकार होता है। 

(1) कारी कूर कोकिल कहाँ का बैर काढ़ति री।

(2) तरनि–तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।

(3) चामर-सी, चन्दन – सी, चंद – सी,
चाँदनी चमेली चारु चंद-सुघर है।”

(3) लाटानुप्रास अलंकार

जहाँ शब्द और अर्थ की आवृत्ति हो; अर्थात् जहाँ एकार्थक शब्दों की आवृत्ति तो हो, परन्तु अन्वय करने पर अर्थ भिन्न हो जाए; वहाँ ‘लाटानुप्रास’ अलंकार होता है।

(1) पूत सपूत तो क्यों धन संचै?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै?

(2) तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।

(4) अन्त्यानुप्रास अलंकार

जब छन्द के शब्दों के अन्त में समान स्वर या व्यंजन की आवृत्ति हो, वहाँ ‘अन्त्यानुप्रास’ अलंकार होता है।

(1) कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात।
भरे भौन में करतु हैं, नैननु हीं सौं बात॥

(2) लगा दी किसने आकर आग।
कहाँ था तू संशय के नाग?”

(5) श्रुत्यानुप्रास अलंकार

जब कण्ठ, तालु, दन्त आदि किसी एक ही स्थान से उच्चरित होनेवाले वर्गों की आवृत्ति होती है, तब वहाँ ‘श्रुत्यनुप्रास’ अलंकार होता है।

(1) तुलसीदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई।

(2) दिनान्त था, थे दीननाथ डुबते,
सधेनु आते गृह ग्वाल बाल थे।”

(2) यमक अलंकार

यमक’ का अर्थ है–’युग्म’ या ‘जोड़ा’।

जहाँ एक शब्द या शब्द समूह अनेक बार आए किन्तु उनका अर्थ प्रत्येक बार भिन्न हो, वहाँ यमक अलंकार होता है

(1) जेते तुम तारे, तेते नभ में न तारे हैं”

यहाँ पर ‘तारे’ शब्द दो बार आया है। प्रथम का अर्थ ‘तारण करना’ या ‘उद्धार करना’ है और द्वितीय ‘तारे’ का अर्थ ‘तारागण’ है, अतः यहाँ यमक अलंकार है।

(2) काली घटा का घमंड घटा।

यहाँ ‘घटा’ शब्द की आवृत्ति भिन्न-भिन्न अर्थ में हुई है। पहले ‘घटा’ शब्द ‘वर्षाकाल’ में उड़ने वाली ‘मेघमाला’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और दूसरी बार ‘घटा’ का अर्थ है ‘कम हुआ’। अतः यहाँ यमक अलंकार है।

(3) कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय। या खाए बौरात नर या पा बौराय।।

इस पद्य में ‘कनक’शब्द का प्रयोग दो बार हुआ है। प्रथम कनक का अर्थ ‘सोना’और दुसरे कनक का अर्थ ‘धतूरा’है। अतः ‘कनक’शब्द का दो बार प्रयोग और भिन्नार्थ के कारण उक्त पंक्तियों में यमक अलंकार की छटा दिखती है।

(4) माला फेरत जग गया, फिरा न मन का फेर। कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर। 

ऊपर दिए गए पद्य में ‘मनका’शब्द का दो बार प्रयोग किया गया है। पहली बार ‘मनका’का आशय माला के मोती से है और दूसरी बार ‘मनका’ से आशय है मन की भावनाओ से।अतः ‘मनका’ शब्द का दो बार प्रयोग और भिन्नार्थ के कारण उक्त पंक्तियों में यमक अलंकार की छटा दिखती है।

(5) कहै कवि बेनी बेनी ब्याल की चुराई लीनी

जैसा की आप देख सकते हैं की ऊपर दिए गए वाक्य में ‘बेनी’ शब्द दो बार आया है। दोनों बार इस शब्द का अर्थ अलग है।पहली बार ‘बेनी’शब्द कवि की तरफ संकेत कर रहा है। दूसरी बार ‘बेनी’ शब्द चोटी के बारे में बता रहा है। अतः उक्त पंक्तियों में यमक अलंकार है।

 

(3) श्लेष अलंकार

जहाँ पर कोई एक शब्द एक ही बार आये पर उसके अर्थ अलग अलग निकलें वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है।

(1) रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती मानुष चून।।

यहाँ ‘पानी’ के तीन अर्थ हैं—’कान्ति’, ‘आत्मसम्मान’ और ‘जल’

(2) जे रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।बारे उजियारो करै, बढ़े अंघेरो होय।

यहाँ बढे शब्द से दो विभिन्न अर्थ निकल रहे हैं। दीपक के सन्दर्भ में बढ़ने का मतलब है बुझ जाना जिससे अन्धेरा हो जाता है। कुपुत्र के सन्दर्भ में बढ़ने से मतलब है बड़ा हो जाना।बड़े होने पर कुपुत्र कुकर्म करता है जिससे परिवार में अँधेरा छा जात है।

(3) विपुल घन अनेकों रत्न हो साथ लाए। प्रियतम बतला दो लाल मेरा कहां है। ।

यहाँ लाल  शब्द से दो विभिन्न अर्थ निकल रहे हैं। लाल – पुत्र , मणि

(4) मेरी भव बाधा हरो ,राधा नागरी सोय , जा तन की झाई परे , श्याम हरित दुति  होय।

यहाँ हरित शब्द से विभिन्न अर्थ निकल रहे हैं। हरित – हर लेना , हर्षित होना ,हरा रंग का होना।

(5) चरन धरत चिंता करत चितवत चारों ओर।
सुबरन को खोजत, फिरत कवि, व्यभिचारी, चोर।

यहाँ सुबरन शब्द के एक से अधिक अर्थ हैं
कवि के संदर्भ में इसका अर्थ सुंदर वर्ण (शब्द), व्यभिचारी के संदर्भ में सुंदर रूप रंग और चोर के संदर्भ में इसका अर्थ सोना है।

(4) वक्रोक्ति अलंकार

जहाँ पर वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का श्रोता अलग अर्थ निकाले उसे वक्रोक्ति अलंकार कहते है।

इसके दो भेद हैं-

(1) श्लेष वक्रोक्ति

(2) काकु वक्रोक्ति।

(1) श्लेष वक्रोक्ति : जहाँ पर श्लेष की वजह से वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का अलग अर्थ निकाला जाये वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है।

जैसे : को तुम हौ इत आये कहाँ घनस्याम हौ तौ कितहूँ बरसो।
चितचोर कहावत है हम तौ तहां जाहुं जहाँ धन सरसों।

(2) काकु वक्रोक्ति : जहाँ किसी कथन का कण्ठ की ध्वनि के कारण दूसरा अर्थ निकलता है, वहाँ काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है

जैसे : मैं सुकुमारि, नाथ वन जोगू।
तुमहिं उचित तप मो कहँ भोगू।”

(5) पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार

पुनरुक्ति अलंकार दो शब्दों से  मिलकर  बना है – पुन: +उक्ति।

जब कोई शब्द दो बार दोहराया जाता है वहाँ पर पुनरुक्ति अलंकार होता है।

जैसे- “ठौर-ठौर विहार करती सुन्दरी सुरनारियाँ।”

यहाँ ‘ठौर-ठौर’ की आवृत्ति में पुनरुक्तिप्रकाश है।

दोनों ‘ठौर’ का अर्थ एक ही . है परन्तु पुनरुक्ति से कथन में बल आ गया है।

 (6) पुनरुक्तिवदाभास अलंकार

जहाँ कथन में पुनरुक्ति का आभास होता है, वहाँ पुनरुक्तिवदाभास अलंकार होता है

जैसे- “पुनि फिरि राम निकट सो आई।”

यहाँ ‘पुनि’ और ‘फिरि’ का समान अर्थ प्रतीत होता है, परन्तु पुनि का अर्थ-पुन: (फिर) है और ‘फिरि’ का अर्थ-लौटकर होने से पुनरुक्तिावदाभास अलंकार है।

(7) वीप्सा अलंकार

जब किसी कथन में अत्यन्त आदर के साथ एक शब्द की अनेक बार आवृत्ति होती है तो वहाँ वीप्सा अलंकार होता है

जैसे- “हा! हा!! इन्हें रोकन को टोक न लगावो तुम।”

यहाँ ‘हा!’ की पुनरुक्ति द्वारा गोपियों का विरह जनित आवेग व्यक्त होने से वीप्सा अलंकार है।

 

(2) अर्थालंकार

जब किसी वाक्य का सौन्दर्य उसके अर्थ पर आधारित होता है तब यह अर्थालंकार के अंतर्गत आता है ।

या

जहाँ पर अर्थ के माध्यम से काव्य में चमत्कार होता हो वहाँ अर्थालंकार होता है।

जैसे : चरण–कमल बन्दौं हरिराई।

यहाँ पर ‘कमल’ के स्थान पर ‘जलज’ रखने पर भी अर्थगत सौन्दर्य में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।

अर्थालंकार के प्रमुख रूप से निम्नलिखित  भेद हैं:-

(1) उपमा अलंकार

(2)  रूपक अलंकार

(3) उत्प्रेक्षा अलंकार

(4) अतिशयोक्ति अलंकार

(5) मानवीकरण अलंकार

(6) अन्योक्ति अलंकार

(7) सन्देह अलंकार

(8) प्रतीप अलंकार

(9) भ्रांतिमान अलंकार

(10)  विभावना अलंकार

(1) उपमा अलंकार

उप का अर्थ है समीप से और पा का अर्थ है तोलना या देखना ।

जब किसी व्यक्ति या वस्तु की तुलना किसी दूसरे यक्ति या वस्तु से की जाए वहाँ पर उपमा अलंकार होता है।

(1) मुख मयंक सम मंजु मनोहर।
उपमेय – मुख
उपमान – मयंक
साधारण धर्म – मंजु मनोहर
वाचक शब्द – सम।

(2) हाय! फूल-सी कोमल बच्ची हुई राख की ढेरी थी।
उपमेय – बच्ची
उपमान – फूल
साधारण धर्म – कोमल
वाचक शब्द – सी

(3) तब तो बहता समय शिला-सा जम जाएगा।
उपमेय – समय
उपमान – शिला
साधरण धर्म – जम (ठहर) जाना
वाचक शब्द – सा

(4) उषा सुनहले तीर बरसती जयलक्ष्मी-सी उदित हुई।
उपमेय – उषा
उपमान – जयलक्ष्मी
साधारणधर्म – उदित होना
वाचक शब्द – सी

उपमा अलंकार के अंग :-

(1) उपमेय : उपमेय का अर्थ होता है – उपमा देने के योग्य। अगर जिस वस्तु की समानता किसी दूसरी वस्तु से की जाये वहाँ पर उपमेय होता है।

जैसे-उसका मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है।

वाक्य में ‘मुख’ की चन्द्रमा से समानता बताई गई है, अत: मुख उपमेय है।

(2) उपमान : उपमेय की उपमा जिससे दी जाती है उसे उपमान कहते हैं। अथार्त उपमेय की जिस के साथ समानता बताई जाती है उसे उपमान कहते हैं।

जैसे- उसका मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है।

उपमेय (मुख) की समानता चन्द्रमा से की गई है, अतः चन्द्रमा उपमान है।

(3) वाचक शब्द : जब उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है तब जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उसे वाचक शब्द कहते हैं।

जैसे – सम , सी , सा , सरिस , आदि शब्द वाचक शब्द कहलाते है।

(4) साधारण धर्म : जिस गुण के लिए उपमा दी जाती है, उसे साधारण धर्म कहते हैं।

जैसे- उसका मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है।

उक्त उदाहरण में सुन्दरता के लिए उपमा दी गई है, अत: सुन्दरता साधारण धर्म है।

 

उपमा के तीन भेद हैं–

(1) पूर्णोपमा अलंकार  : इसमें उपमा के सभी अंग होते हैं – उपमेय, उपमान, वाचक शब्द, साधारण धर्म आदि अंग होते हैं वहाँ पर पूर्णोपमा अलंकार होता है।

सागर-सा गंभीर ह्रदय हो,
गिरी-सा ऊँचा हो जिसका मन।

(2) लुप्तोपमा अलंकार  : इसमें उपमा के चारों अगों में से यदि एक या दो का या फिर तीन का न होना पाया जाए वहाँ पर लुप्तोपमा अलंकार होता है।

कल्पना सी अतिशय कोमल।

इसमें उपमेय नहीं है तो इसलिए यह लुप्तोपमा का उदाहरण है।

(3) मालोपमा अलंकार : जहाँ किसी कथन में एक ही उपमेय के अनेक उपमान होते हैं वहाँ मालोपमा अलंकार होता है।

पछतावे की परछाँही–सी, तुम उदास छाई हो कौन?
दुर्बलता की अंगड़ाई–सी, अपराधी–सी भय से मौन।

उपर्युक्त उदाहरण में एक उपमेय के लिए अनेक उपमान प्रस्तुत किए गए हैं; अत: यहाँ ‘मालोपमा’ अलंकार है।

(2) रूपक अलंकार

जहाँ पर उपमेय और उपमान में कोई अंतर न दिखाई दे वहाँ रूपक अलंकार होता है अथार्त जहाँ पर उपमेय और उपमान के बीच के भेद को समाप्त करके उसे एक कर दिया जाता है वहाँ पर रूपक अलंकार होता है।

(1)  बीती विभावरी जाग रही,
अम्बर पनघट में डुबो रही,
तारा घट उषा नागरी।

यहाँ पर अम्बर को पनघट तथा उषा को नागरी का रूप मान लिया गया है। कहने का आशय यह है कि ये आसमान एक बहुत विशाल पानी का घाट है, जिस पर उषा(सुबह) रुपी स्त्री तारों की भांति चमकता पात्र(घड़ा) डुबो रही है, जिसमे वह पानी भरकर ले जाने आई है। अत: रूपक अलंकार है।

(2) मैया मैं तो चन्द्र-खिलौना लैहों

उदाहरण में चन्द्रमा एवं खिलोने में समानता न दिखाकर चाँद को ही खिलौना बोल दिया गया है।

(3) ओ चिंता की पहली रेखा, अरे विश्व–वन की व्याली।
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण, प्रथम कम्प–सी मतवाली।

उदाहरण में चिन्ता उपमेय में विश्व–वन की व्याली आदि उपमानों का आरोप किया गया है, अत: यहाँ ‘रूपक’ अलंकार है।

(4) चरण कमल बन्दौं हरि राइ।

यहाँ पर भगवान विष्णु के चरणों को कमल माना गया है। यहाँ पर तुलना न करते हुए, हरि-चरणों को कमल का रूप मान लिया गया है।

(5)  मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता।
मुनि के चरणों (उपमेय) पर कमल (उपमान) का आरोप।

(6) पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।

ऊपर दिए गए उदाहरण में राम रतन को ही धन बता दिया गया है। ‘राम रतन’ – उपमेय पर ‘धन’ – उपमान का आरोप है एवं दोनों में अभिन्नता है।यहां आप देख सकते हैं की उपमान एवं उपमेय में अभिन्नता दर्शायी जा रही है।

रूपक अलंकार के भेद :-

(1) सम रूपक अलंकार : इसमें उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है वहाँ पर सम रूपक अलंकार होता है।

(2) अधिक रूपक अलंकार : जहाँ पर उपमेय में उपमान की तुलना में कुछ न्यूनता का बोध होता है वहाँ पर अधिक रूपक अलंकार होता है।

(3) न्यून रूपक अलंकार : इसमें उपमान की तुलना में उपमेय को न्यून दिखाया जाता है वहाँ पर न्यून रूपक अलंकार होता है।

(3) उत्प्रेक्षा अलंकार

जहाँ उपमेय में उपमान के होने की संभावना का वर्णन हो तब वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

यदि पंक्ति में -मनु, जनु,मेरे जानते,मनहु,मानो, निश्चय, ईव आदि आता है बहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

(1) सोहत ओढ़े पीत पैट पट, स्याम सलोने गात,
मानहु नीलमणि सैल पर, आपत परयो प्रभात।

पंक्तियों में श्रीकृष्ण के बाल रूप जब पीले वस्त्र ओढ़े मुस्कान बिखेरते हैं, तब उसके प्यारे गाल इतने सुंदर जान पड़ते हैं, मानो प्रातःकाल के वक़्त, नीलमणि पर्वत स्वयं सामने खड़ा चमक रहा है।

(2) कहती हुई यूँ उत्तरा के नेत्र जल से भर गए।
हिम कणों से पूर्ण मानों हो गए पंकज नए।।

यहाँ उत्तरा के जल (आँसू) भरे नयनों (उपमेय) में हिमकणों से परिपूर्ण कमल (उपमान) की संभावना प्रकट की गई है। अतः उत्प्रेक्षा अलंकार है।

(3) धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रंक निधि लूटन लागी।

यहाँ राम के रूप-सौंदर्य (उपमेय) में निधि (उपमान) की संभावना।

(4) अति कटु वचन कहत कैकेयी। मानहु लोन जरे पर देई ।

यहाँ कटुवचन से उत्पन्न पीड़ा (उपमेय) में जलने पर नमक छिड़कने से हुए कष्ट की संभावना प्रकट की गई है।

(5) चमचमात चंचल नयन, बिच घूघट पर झीन।
मानहँ सुरसरिता विमल, जल उछरत जुगमीन।।

यहाँ घूघट के झीने परों से ढके दोनों नयनों (उपमेय) में गंगा जी में उछलती युगलमीन (उपमान) की संभावना प्रकट की गई है।

 

उत्प्रेक्षा के तीन भेद तीन हैं–

(1) वस्तूत्प्रेक्षा :  वस्तूत्प्रेक्षा में एक वस्तु की दूसरी वस्तु के रूप में सम्भावना की जाती है। 

सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजन की माल।
बाहर लसत मनो पिये, दावानल की ज्वाल।

(2) हेतूत्प्रेक्षा : जहाँ अहेतु में हेतु की सम्भावना देखी जाती है। अथार्त वास्तविक कारण को छोडकर अन्य हेतु को मान लिया जाए वहाँ हेतुप्रेक्षा अलंकार होता है।

मानहुँ बिधि तन–अच्छ छबि, स्वच्छ राखिबै काज।
दृग–पग पौंछन कौं करे, भूषन पायन्दाज॥

(3) फलोत्प्रेक्षा : इसमें वास्तविक फल के न होने पर भी उसी को फल मान लिया जाता है वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है।

पुहुप सुगन्ध करहिं एहि आसा।
मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा॥

 (4) अतिशयोक्ति अलंकार

जब किसी बात का वर्णन बहुत बढ़ा-चढ़ाकर किया जाए तब वहां अतिशयोक्ति अलंकार होता है।

(1) हनुमान की पूंछ में, लगन न पाई आग,
लंका सगरी जल गई, गए निसाचर भाग।

यहाँ हनुमान की पूंछ में आग लगने के पहले ही सारी लंका का जलना और राक्षसों के भागने का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन होने से अतिशयोक्ति अलंकार है।

(1) आगे नदियाँ पड़ी अपार, घोडा कैसे उतरे पार। राणा ने सोचा इस पार , तब तक चेतक था उस पार।

ऊपर दिए गए उदाहरण में चेतक की शक्तियों व स्फूर्ति का बहुत बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया गया है। अतएव यहाँ पर अतिशयोक्ति अलंकार होगा।

(2) धनुष उठाया ज्यों ही उसने, और चढ़ाया उस पर बाण ।धरा–सिन्धु नभ काँपे सहसा, विकल हुए जीवों के प्राण।

ऊपर दिए गए वाक्यों में बताया गया है कि जैसे ही अर्जुन ने धनुष उठाया और उस पर बाण चढ़ाया तभी धरती, आसमान एवं नदियाँ कांपने लगी ओर सभी जीवों के प्राण निकलने को हो गए।

(5) मानवीकरण अलंकार

जब प्राकृतिक चीज़ों में मानवीय भावनाओं के होने का वर्णन हो तब वहां मानवीकरण अलंकार होता है।

(1) मेघमय आसमान से उतर रही है संध्या सुन्दरी परी सी धीरे धीरे धीरे। 

ऊपर दी गयी पंक्तियों में बताया गया है कि संध्या सुन्दर परी की तरह धीरे धीरे आसमान से नीचे उतर रही है।इस वाक्य में संध्या कि तुलना एक सुन्दर पारी से की है। एक निर्जीव की सजीव से।ये असलियत में संभव नहीं है  एवं हम यह भी जानते हैं की जब सजीव भावनाओं का वर्णन चीज़ों में किया जाता है तब यह मानवीकरण अलंकार होता है।

(2) बीती विभावरी जागरी, अम्बर पनघट में डुबो रही तास घट उषा नगरी।

उपरोक्त कविता में ऊषा को अम्बर रूपी पनघट पर गागर भरती हुई स्त्री के रूप में चित्रित किया गया है। ऊषा के मानवीकरण व्यवहार करने की वजह से यहाँ मानवीकरण अलंकार है।

(3)  फूल हँसे कलियाँ मुस्कुराई।

ऊपर दिए गए उदाहरण में आप देख सकते हैं की फूलों के हसने का वर्णन किया गया है जो मनुष्य करते हैं अतएव यहाँ मानवीकरण अलंकार है।

(4) यौवन में माती मटरबेलि अलियों से आँख लड़ाती है।

मटरबेलि का सखियों से आँख लड़ाने में मानवीय क्रियाओं का आरोप है।

(6) अन्योक्ति अलंकार

अप्रस्तुत के माध्यम से प्रस्तुत का वर्णन करने वाले काव्य अन्योक्ति अलंकार कहलाते है।

(1) नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास एहि काल।
अली कली ही सो बिंध्यौ, आगे कौन हवाल।।”

(2) फूलों के आस- पास रहते हैं,
फिर भी काँटे उदास रहते हैं।

(3) जिन दिन देखे वे कुसुम, गई सुबीति बहार। अब अलि रही गुलाब में, अपत कँटीली डार

(4) भयो सरित पति सलिल पति, अरु रतनन की खानि। कहा बड़ाई समुद्र की, जु पै न पीवत पानि।

 

(7) संदेह अलंकार

जब उपमेय और उपमान में समता देखकर यह निश्चय नही हो पाता कि उपमान वास्तव में उपमेय है या नहीं। जब यह दुविधा बनी रहती है,तब संदेह अलंकार होता है।

(1) सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है
की सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है 

इसमें चीरहरण के समय बढ़ती हुई द्रोपदी की साड़ी को देखकर नारी में सारी एवं सारी में नारी का संदेह होता है अतः यहां संदेह अलंकार है.

(2) यह काया है या शेष उसी की छाया,
क्षण भर उसकी कुछ नहीं समझ में आया।”

(3) बाल धी विसाल विकराल ज्वाल-जाल मानौ,

लंक लीलिवे को काल रसना पसारी 

(4) यह काया है या शेष उसी की छाया,
क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया।

(8) प्रतीप अलंकार

प्रतीप का अर्थ है-‘उल्टा या विपरीत’। जहाँ उपमेय का कथन उपमान के रूप में तथा उपमान का उपमेय के रूप में किया जाता है, वहाँ प्रतीप अलंकार होता है 

(1)  उतरि नहाए जमुन जल, जो शरीर सम स्याम

यहाँ यमुना के श्याम जल की समानता रामचन्द्र के शरीर से देकर उसे उपमेय बना दिया है, अतः यहाँ प्रतीप अलंकार है।

(2) मैं केलों में जघनयुग की देखती मंजुता हूँ।’

केले को जांघों के लिए उपमान के रूप में प्रयोग किया जाता है। लेकिन यहाँ आप देखेंगे की जांघ उपमान और केला उपमेय के रूप में आया है।

(3)  तग प्रकाश तब जस करै वृथा भानु यह देख।।

(9) भ्रांतिमान अलंकार

जहाँ समानता के कारण एक वस्तु में किसी दूसरी वस्तु का भ्रम हो, वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है

(1) पायें महावर देन को नाईन बैठी आय ।
फिरि-फिरि जानि महावरी, एडी भीड़त जाये।।

नायिका के पाँव में महावर लगाने के लिए नाइन आ बैठी। किन्तु उसकी एड़ी स्वाभाविक रूप से इतनी लाल थी कि वह बराबर उसे महावर लगी हुई जानकर माँज-माँजकर धोने लगी। इस भ्रम के कारण यहाँ भ्रांतिमान अलंकार है।

(2) नाक का मोती अधर की कांति से, बीज दाड़िम का समझ कर भ्रान्ति से ,

देखता ही रह गया शुक मौन है, सोचता है अन्य शुक यह कौन है।”

(10) विभावना अलंकार

जहाँ कारण के बिना कार्य के होने का वर्णन हो, वहाँ विभावना अलंकार होता है;

(1) बिनु पगु चलै, सुनै बिनु काना,
कर बिनु कर्म, करै विधि नाना,
आनन रहित, सकल रसु भोगी,
बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी।”

यहाँ पैरों के बिना चलना, कानों के बिना सुनना, बिना हाथों के विविध कर्म करना, बिना मुख के सभी रस भोग करना और वाणी के बिना वक्ता होने का उल्लेख होने से विभावना अलंकार है।

(3) उभयालंकार

अलंकार शब्द और अर्थ दोनों पर आधारित रहकर दोनों को चमत्कारी करते हैं वहाँ उभयालंकार होता है या आसान भाषा में अगर कहें तो जहाँ शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों की विशेषताएं पायी जाती हैं वहाँ उभयालंकार होता है।

उदाहरण – सरस सुधा से बोल
कजरारी अंखियन में कजरारी न लखाय

उभयालंकार के 2 प्रकार हैं:

  • संकर अलंकार
  • संसृष्टि अलंकार

(i) संकर अलंकार

जहाँ एक ही स्थान पर कई अलंकार ऐसे मिले हुए हों जैसे दूध में पानी मिला होता है, वहां संकर अलंकार होता है

उदाहरण 

विरल इन्द्रधनुषी बादल सा

अलि किस सुषमा का संसार

बदल रहा निज रूप अपार

नयन नीलिमा के लघु नभ में

(ii) संसृष्टि अलंकार

जहाँ दो या दो से अधिक अलंकार परस्पर मिले होकर भी स्पष्ट रहें वहाँ संसृष्टि अलंकार होता है

उदाहरण

मार केशर-शर, मलय समीर

साँस, सुधि, स्वप्न, सुरभि, सुखगान

ह्रदय हुलसित कर पुलकित प्राण

तिरती गृह वन मलय समीर

(4) पाश्चात्य अलंकार

हिंदी में पाश्चात्य प्रभाव पड़ने के बाद पाश्चात्य अलंकार का समावेश हुआ है।
पाश्चात्य अलंकार के भेद इस प्रकार हैं :-

1. मानवीकरण अलंकार

2. भावोक्ति अलंकार

3. ध्वन्यालोक अलंकार इत्यादि। 

 

हिन्दी व्याकरण

संज्ञा संधि लिंग
काल क्रिया धातु
वचन कारक समास
अलंकार विशेषण सर्वनाम
उपसर्ग प्रत्यय संस्कृत प्रत्यय

Filed Under: व्याकरण, हिन्दी

About Mrs Shilpi Nagpal

Author of this website, Mrs. Shilpi Nagpal is MSc (Hons, Chemistry) and BSc (Hons, Chemistry) from Delhi University, B.Ed. (I. P. University) and has many years of experience in teaching. She has started this educational website with the mindset of spreading free education to everyone.

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Comments

  1. suman rawat says

    August 19, 2021 at 4:41 pm

    really helpful
    you have made learning hindi very easy
    thank you so much

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