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पाठ की रूपरेखा
कवि-परिचय
मंगलेश डबराल का जन्म 16 मई, 1948 को उत्तराखंड स्थित टिहरी गढ़वाल के काफलपानी गाँव में हुआ। देहरादून से शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् ये दिल्ली आकर हिंदी पेट्रियट, प्रतिपक्ष तथा आसपास से जुड़ गए। तत्पश्चात् कला परिषद्, भारत भवन, भोपाल से प्रकाशित त्रैमासिक पूर्वाग्रह में सहायक संपादक का कार्यभार सँभाला । अमृत प्रभात, जनसत्ता और सहारा समय में संपादन कार्य करने के पश्चात् इन दिनों ये नेशनल बुक ट्रस्ट में अपनी सेवा दे रहे है। पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं, आवाज़ भी एक जगह है तथा नए युग में शत्रु इनके प्रसिद्ध काव्य-संग्रह; लेखक की रोटी तथा कवि का अकेलापन गद्य संग्रह और एक बार आयोवा यात्रावृत्त है। इनकी कविताएँ कई विदेशी भाषाओं में भी अनूदित हैं। स्वयं डबराल भी एक ख्याति प्राप्त अनुवादक हैं। इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, साहित्यकार सम्मान, पहल सम्मान, कुमार विमल स्मृति पुरस्कार , श्रीकांत बर्मा पुरस्कार आदि से विभूषित किया गया है।
काव्यांशों का भावार्थ
काव्यांश 1
शब्दार्थ
मुख्य गायक-वह गायक जिसकी आवाज़ सबसे अधिक और ज़ोर से सुनाई देती है | कमज़ोर कांपती हुई-धीमी और पतली | शिष्य-सीखने वाला छात्र | रिश्तेदार-संबंधी |
गरज़-ऊँची-गंभीर आवाज़ |
भावार्थ
कवि कहता है कि मुख्य गायक की सफलता के पीछे संगतकार का योगदान छिपा रहता है। जब मुख्य गायक चट्टान के समान गम्भीर, भारी भरकम आवाज़ में गाता था, तो उसका संगतकार अपनी अत्यन्त सुन्दर काँपती हुई आवाज से उसका साथ देता था। ऐसा लगता था जैसे संगतकार या तो मुख्य गायक का छोटा भाई है या उसका परम शिष्य। या फिर कोई दूर का रिश्तेदार, जो पैदल चलकर संगीत सीखने आया हो। अपनेपन से मुख्य गायक की में अप आवाज़ ना खूबसूरत स्वर मिलाने वाला निश्चय ही उसका कोई अपना ही हो सकता है। वह सदैव से ही मुख्य गायक की ऊँची गम्भीर आवाज़ में अपना आलाप लगाता चला आया है।
काव्यांश 2
जब वह नौसिखिया था
शब्दार्थ
अंतरा-स्थायी या टेक को छोड़कर गीत का चरण | जटिल-कठिन | तान-संगीत में स्वर का विस्तार | सरगम-संगीत के सात स्वरों का समूह |
अनहद-बिना आघात की गूँज | संगतकार -गायन-वादन द्वारा मुख्य कलाकार का साथ देने वाला | स्थायी-बार-बार प्रयोग किया जाने वाला गायन-वादन का प्रारंभिक चरण | नौसिखिया-जिसने अभी सीखना आरंभ किया हो |
भावार्थ
जब मुख्य गायक स्थायी या टेक को छोड़कर अंतरे के रूप में बंदिश अर्थात् गीत का अगला चरण पकड़ता है और कठिन तानों की सफलतापूर्ण प्रस्तुति करता है या अपने ही सरगम को लाँघकर एक ऊँचे स्वर में खो जाता है, तब संगतकार ही गाने के स्थायी को पकड़े रहता है। यहाँ कवि ने गायन की उस स्थिति का वर्णन किया है, जहाँ मुख्य गायक गाते-गाते अलौकिक आनंद में डूब जाता है और उसे पास बैठे श्रोताओं की अनुभूति भी नहीं रहती। उस स्थिति में संगतकार मुख्य गायक और श्रोतागण के मध्य सेतु का कार्य करता हुआ कार्यक्रम में चार चाँद लगा देता है। उस समय ऐसा लगता है, जैसे वह मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान समेट रहा हो, जैसे वह उसे उसका बचपन याद दिला रहा हो, जब वह संगीत सीख रहा था।
काव्यांश 3
शब्दार्थ
तारसप्तक-मध्य सप्तक से ऊपर का सप्तक | अस्त होना-कम होना/छिप जाना | राख जैसा कुछ गिरता हुआ-बुझता हुआ स्वर | ढाँढस बाँधना -तसल्ली देना/सांत्वना देना |
हिचक-रुकावट | विफलता–असफलता | मनुष्यता- मानवीय गुणों से युक्त/मानवता |
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