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Home » Class 10 » Hindi » Kshitij » राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद – पठन सामग्री और भावार्थ Chapter 2 Class 10 Hindi

राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद – पठन सामग्री और भावार्थ Chapter 2 Class 10 Hindi

Last Updated on February 16, 2023 By Mrs Shilpi Nagpal

Contents

  • 1 पाठ की रूपरेखा 
  • 2 कवि-परिचय 
  • 3 काव्यांश 1
    • 3.1 दोहा..
    • 3.2 शब्दार्थ
    • 3.3 व्याख्या
  • 4 काव्यांश 2 
    • 4.1 दोहा
    • 4.2 शब्दार्थ 
    • 4.3 व्याख्या
  • 5 काव्यांश 3
    • 5.1 दोहा
    • 5.2 शब्दार्थ 
    • 5.3 व्याख्या
  • 6 काव्यांश 4
    • 6.1 दोहा 
    • 6.2 शब्दार्थ 
    • 6.3 व्याख्या
  • 7 काव्यांश 5 
    • 7.1 दोहा
    • 7.2
    • 7.3 शब्दार्थ 
    • 7.4 व्याख्या
  • 8 काव्याश 6
    • 8.1 दोहा
    • 8.2 शब्दार्थ
    • 8.3 व्याख्या

पाठ की रूपरेखा 

‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ तुलसीदास की रचना रामचरितमानस’ के ‘बालकांड’ का अंश है। इस अंश में सीता स्वयंवर में रामचंद्र द्वारा शिवधनुष भंग किए जाने के पश्चात्‌ परशुराम का अत्यंत क्रोधावस्था में राजा जनक के दरबार में आने और राम-लक्ष्मण के साथ हुए उनके संवाद को प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुत प्रसंग की विशेषता है लक्ष्मण की बीर रस से भरी व्यगयोक्तियाँ और परशुराम की क्रोधाभिव्यक्ति।

☛ NCERT Solutions For Class 10 Chapter 2 राम लक्ष्मण परशुराम संवाद


कवि-परिचय 

गोस्वामी तुलसीदास का जन्म 1532 ई. में उत्तर प्रदेश के बाँदा ज़िले के राजापुर गाँव में हुआ था। कुछ विद्वान्‌ इनका जन्म स्थान सोरो (ज़िला एटा) भी मानते है। बचपन में ही इनके माता-पिता ने इनका परित्याग कर दिया था। तुलसीदास जी मानव मूल्यों के उपासक कवि थे। अपने गुरु की कृपा से इन्हें रामभक्ति का मार्ग मिला। अपनी काव्य प्रतिभा के बल पर इसी मार्ग का अनुसरण करते हुए तुलसी दास ने अपनी लेखनी के द्वारा अपने आराध्य देव मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के माध्यम से नीति, स्नेह, शील, विनय, त्याग जैसे उदात्त आदर्शों को प्रतिष्ठित किया। रामभक्ति पर आधारित रामचरितमानस इनकी सर्वश्रेष्ठ रचना है। कवितावली, गीतावली, दोहावली, कृष्णगीतावली, विनयपत्रिका इत्यादि इनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएं हैं। अवधी के साथ-साथ ब्रजभाषा पर भी इनका समान अधिकार था। 1623 ई. में काशी में प्रभु राम के इस अनन्य भक्त का देहावसान हो गया।

 

काव्यांश 1

नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।
आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।
सेवकु सो जो करे सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई।।
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।।
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने।
बहु धनुही तोरी लरिकाई। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।।
येहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू।।

दोहा..

रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार।।

शब्दार्थ

संभु-शंभु/शिव धनु-धनुष भंजनिहारा-भंग करने वाला/तोड़ने वाला केउ-कोई
आयेसु-आज्ञा काह-क्या रिसाइ-क्रोध करना कोही-क्रोधी
अरिकरनी-शत्रु का काम लराई-लड़ाई जेहि-जिसने सम-समान
सो-वह रिपु-शत्रु  बिलगाउ-अलग होना बिहाइ-छोड़कर
जैहहिं-जाएँगे अवमाने-अपमान करना लरिकाई-बचपन में कबहूँ-कभी
असि-ऐसा रिस-क्रोध गोसाई-स्वामी/महाराज  येहि-इस
 भूगुकुलकेतू – भूगुकुल की पताका अर्थात्‌ परशुराम नृपबालक-राजपुत्र/राजा का बेटा त्रिपुरारि-शिवजी बिदित-जानता है
सकल-सारा      

व्याख्या

श्रीराम द्वारा शिवधनुष तोड़ दिए जाने पर उसके टंकार की ध्वनि को सुनकर परशुराम जनक महल में आते हैं और उस धनुष को तोड़ने वाले को दण्ड देने के उद्देश्य से सभा से बाहर बुलाना चाहते हैं। परशुराम को गुस्से से आगबबूला होता देखकर रामचन्द्र जी उनसे कहते हैं कि हे नाथ! धनुष को तोड़ने वाला अवश्य ही आपका कोई दास होगा। मेरे लिए क्‍या आज्ञा है? राम के विनय भरे शब्दों को सुनकर स्वभाव से अत्यन्त क्रोधी मुनि परशुराम बोले-तुम स्वयं को सेवक कैसे कह रहे हो ? सेवक तो वही होता है, जो सेवा करता है। शत्रुओं का कार्य करके तो दुश्मनी मोल ली जाती है। जिसने इस शिवधनुष को तोड़ा है वह सहस्तबाहु के समान मेरा प्रबल शत्रु है, इसलिए उसे इस सभा से अलग करके बाहर निकाल दो अन्यथा मेरे द्वारा सभी राजाओं ‘ को मार दिया जाएगा। मुनि परशुराम के ऐसे अहंकार और क्रोध भरे वचनों को सुनकर लक्ष्मण मुस्कराने लगे। वे परशुराम से अपमानित करने वाले वचन कहने लगे-हे गोसाई जी आप इस एक धनुष के टूट जाने पर इतने क्रोधित क्‍यों हो रहे हो ? हमने तो बचपन में ऐसी बहुत-सी धनुहियाँ तोड़ दी थीं परन्तु हम पर ऐसा क्रोध कभी भी किसी ने नहीं किया। इस धनुष पर आपकी इतनी ममता क्‍यों है? लक्ष्मण के मुख से ऐसी बातों को सुनकर भृगुवंश के ध्वज परशुराम कुपित होकर बोले है राजा के बालक ! निश्चय ही तू काल के वश में हो गया है। तभी तू सँभाल कर नहीं बोल रहा। जिस शिवधनुष के विषय में सम्पूर्ण संसार जानता है, उसकी तुलना तू धनुही से कर रहा है? निश्चय ही तू मृत्यु के वश में हो गया है। 


काव्यांश 2 

लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।। 
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।। 
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू।। 
बोले चितै परसु की ओरा । रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।। 
बालकु बोलि बधों नहि तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।। 
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही।। 
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।
सहसबाहुभुज  छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा। 

दोहा

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।। 

शब्दार्थ 

हसि-हँसकर  भोरें-धोखे में चितै-देखकर तोही-तुझे
हमरे-मेरे छूअत टूट-छूते ही टूट गया परसु-फरसा बिस्वबिदित-दुनिया में प्रसिद्ध
सुनहु-सुनो  रघुपतिहु-राम का सठ-दुष्ट भुजबल-भुजाओं के बल से
छति-क्षति/नुकसान दोसू-दोष/गलती  सुनेहि-सुना है बिपुल-बहुत
 जून-पुराना काज-कारण सुभाउ-स्वभाव महिदेवन्ह-ब्राह्मणों को
तोरें-तोड़ने में  रोसु-क्रोध  बर्धौ-वध करता हूँ भूप-राजा
छेदनिहारा-काट डाला बिलोकु-देखकर महीपकुमारा-राजकुमार गर्भन्ह-गर्भ के
अर्भक-बच्चा दलन-कुचलने वाला    

व्याख्या

लक्ष्मण से बचपन में तोड़े गए धनुषों के विषय में सुनकर परशुराम कुपित हो जाते हैं तथा लक्ष्मण को काल के वश में मानते हुए धमकाते हैं। लक्ष्मण हँसते हुए कहते हैं कि हे देव! सुनिये हमारे लिये तो सभी धनुष एक समान होते हैं। हमें यह बात समझ में नहीं आ रही कि पुराना, जीर्ण धनुष टूट जाने पर आपको क्‍या हानि एवं लाभ है? भोली आँखों वाले श्रीराम ने तो उसे केवल देखा था धोखे से वह टूट गया। धनुष इतना पुराना था कि छूते ही टूट गया, इसमें श्रीराम का कोई दोष नहों है तो हे मुनि! आप बेवजह क्रोधित क्‍यों हो रहे हैं? लक्ष्मण के ऐसे वचनों को सुनकर परशुराम क्रोधित होकर. बोले-अरे मूर्ख ! तूने मेरे स्वभाव के बारे में नहीं सुना है। मेरे इस फरसे की ओर देख। मैं बालक समझकर तेरा वध नहीं कर रहा हूँ और तू मूर्ख मुझे केवल मुनि समझ रहा है, जो शान्त स्वभाव का सहनशील व्यक्ति होता है। मैं बचपन से ही ब्रह्मचारी हूँ अर्थात्‌ मैंने बचपन से ही नियम-संयम का पालन किया है। मैं प्रचण्ड क्रोधी हूँ तथा क्षत्रियों के कुल का घोर शत्रु हूँ। यह बात विश्व में सब जानते हैं। में अनेक बार अपनी भुजाओं के बल पर सम्पूर्ण पृथ्वी को राजाओं से विहीन कर चुका हूँ तथा पृथ्वी को जीतकर ब्राह्मणों को दान कर चुका हूँ। हे राजकुमार ! मेरे फरसे को देख। इसने ही सहस्नबाहु की बलशाली भुजाओं को काट दिया था। अरे राजा के पुत्र लक्ष्मण! तू मुझसे बहस करके अपने माता-पिता को चिन्तित मत कर। अपनी मृत्यु को आमन्त्रित मत कर। मेरा फरसा बहुत भीषण है। यह गर्भ में पल रहे बच्चों का नाश भी आसानी से कर देता है। अत: इसकी भयंकरता से डर। 

काव्यांश 3

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।। 
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।। 
इहाँ कुम्हड़बतिआ कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछ कहा सहित अभिमाना।
भगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी।
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहू पा परिअ तुम्हारें।। 
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।। 

दोहा

फ जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर। 
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।

शब्दार्थ 

बिहसि-हँसकर  महाभट-महान योद्धा  तरजनी-अँगूठे के पार की अँगुली  महिसुर-ब्राह्मण
मृदु कोमल कुठारु-फरसा/कुल्हाड़ा  सरासन बाना-धनुष-बाण हरिजन-ईश्वर’ भक्त
बानी-बोली इहाँ-यहाँ भृगुसुत-भगुवंशी  सुराई-वीरता दिखाना
 मुनीसु-महामुनिः  कुम्हड़बतिआ-सीताफल/कुम्हड़ा का छोटा फल  अपकीरति-अपयश  पा-पैर
 कुलिस-वज्र/कठोर सरोष-क्रोध में  भरकर गिरा-वाणी  

व्याख्या

परशुराम के कठोर बचनों को सुनकर लक्ष्मण हँसते हुए कोमल वाणी में बोले-हे मुनिराज परशुराम! आप तो महान्‌ योद्धा हैं, यह बात हम मानते हैं। आप बार-बार मुझे अपना फरसा क्‍यों दिखा रहे हो ? क्या आप फूँक से पहाड़ को उड़ाना चाहते हो? यहाँ पर कोई छुईमुई के समान निर्बल नहीं है जो आपकी तर्जनी अँगुली देखकर कुम्हला जायेंगे या मर जायेंगे। मैं आपकी इन बातों से डरने वाला नहीं हूँ। है मुनि! आपके हाथ में कुल्हाड़ा तथा धनुष-बाण देखकर मैंने अभिमानपूर्वक कुछ कह दिया। मुझे लगा कि मेरे सामने कोई वीर योद्धा खड़ा है। आपको भृगुऋषि का पुत्र समझकर तथा आपके शरीर पर जनेऊ देखकर मैंने आपके द्वारा कहा गया सब कुछ सहन कर लिया तथा अपने क्रोध को रोक लिया। है मुनिवर! अपने कुल की परम्परा के अनुसार हम क्षत्रिय देवता, ब्राह्मण, भक्त और गाय पर अपनी वीरता नहीं दिखाते। आप तो ब्राह्मण हैं। यदि मुझसे आपका वध हो जायेगा तो मुझे पाप लगेगा और यदि में आपसे हार गया तो मुझे अपयश मिलेगा। अत: यदि आप मुझे मार भी दें तो भी में आपके चरणों में पड़ा रहूँगा। है मुनिवर! अपने कुल की परम्परा के अनुसार हम क्षत्रिय देवता, ब्राह्मण, भक्त और गाय पर अपनी वीरता नहीं दिखाते। आप तो ब्राह्मण हैं। यदि मुझसे आपका वध हो जायेगा तो मुझे पाप लगेगा और यदि मैं आपसे हार गया तो मुझे अपयश मिलेगा। अतः यदि आप मुझे मार भी दें तो भी मैं आपके चरणों में पड़ा रहूँगा । है मुनिराज! आपके मुख से निकले हुए शब्द ही कठोर वज्र के समान हैं। आप बेकार में ही धनुष-बाण और फरसा धारण करते हो। इसलिए इन्हें देखकर यदि मैंने आपसे कुछ अनुचित कह दिया हो तो हे धैर्यवान मुनिवर! आप मुझे क्षमा कर देना। लक्ष्मण के ऐसे व्यंग्य-वचनों को सुनकर भृगवंश के रत्न मुनि परशुराम क्रोधित होकर गंभीर वाणी में बोले।

 

काव्यांश 4

कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु।
भानुबंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुसु अबुधु असंकू।।
कालकवलु होइहि छन माहीं। कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।
तुम्ह हटकहु जौ चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।
नहि संतोषु त पुनि कछ कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।

दोहा 

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहि आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।

शब्दार्थ 

कौसिक-विश्वामित्र कुटिलु-दुष्ट कालबस-मृत्यु के वशीभूत भानुबंस-सूर्यवंशी
राकेस कलंकू-चंद्रमा का कलंक  निपट-पूरी तरह निरंकुसु-जिस पर किसी का वश न चले अबुधु-नासमझ
असंकू-शंकारहित छन माहीं-क्षण भर में खोरि-दोष हटकहु-रोको
उबारा-बचाना सुजसु-सुयश/सुकीर्ति करनी-काम बरनी-वर्णन किया
दुसह-असह्नय  अछोभा-क्षोभरहितः बीरब्रती-वीरता का व्रत धारण करने वाला रन-युद्ध
 गारी-गाली सूर-शूरवीर समर-युद्ध कथहिं प्रतापु-प्रताप की डींग मारना।
घालकु-घातक  कालकवलु-काल का ग्रसित/मृत

व्याख्या

परशुराम विश्वामित्र से कहते हैं कि हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक मूर्ख, कुटिल, मृत्यु के वशीभूत, अपने कुल का नाश करने वाला है। यह सूर्यवंश रूपी चन्द्रमा का कलंक है। यह अति उद्दण्ड, बुद्धिहीन और निडर है। यह अभी एक क्षण में ही मेरे द्वारा काल का ग्रास बन जायेगा। मैं यह बात कह रहा हूँ। बाद में मुझे दोष मत देना। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो तो हमारे पराक्रम, बल और क्रोध के विषय में बताकर इसे रोक लो। परशुराम की ये बातें सुनकर लक्ष्मण बोले-हे महामुनि ! तुम्हारे सुयश के विषय में आपके अलावा अन्य कौन वर्णन कर सकता है अर्थात्‌ आपके सुयश के बारे में आपकी छोड़कर कोई दूसरा वर्णन नहीं कर सकता। आप अपने कर्मों के विषय में अपने मुँह से अनेक बार अनेक प्रकार से स्वयं ही बखान कर चुके हो, इतने पर भी यदि आपको संतोष नहीं हुआ है तो फिर से कुछ वर्णन कर दीजिए। अपने उफनते क्रोध को रोककर असहनीय दुःख को सहन मत कीजिए। आप वीरता की प्रतिज्ञा करने वाले, धैर्यवान एवं क्षोभरहित हैं। गालियाँ देते हुए आप अच्छे नहीं लगते। जो शूरवीर होते हैं वे युद्धभूमि में संग्राम करते हैं। वे अपनी प्रशंसा स्वयं करके अपना परिचय नहीं देते। शत्रु को युद्ध में सामने देखकर केवल कायर ही व्यर्थ में अपने पराक्रम की कथाएँ सुनाते हैं। 

काव्यांश 5 

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।।
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेठ कर घोरा।।
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू।।
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब येहु मरनिहार भा साँचा।।
कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू।।
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगे अपराधी गुरुद्रोही।। 
उतर देत छोड़ों बिनु मारे। केवल कौसिक सील तुम्हारे।। 
न त येहि काटि कुठार कठोरे। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे।। 

दोहा

गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ। 
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहूँ न बूझ अबूझ।। 

शब्दार्थ 

 

कालु-काल/ममृत्यु हाँक -आवाज़ लगाना  जनु-जैसे सुधारि-सुधारक
कर-हाथ कटुबादी-कड़वे वचन बोलने वाला  बधजोगू-मारने योग्य
बॉचा-बचाया
मरनिहार-मरने वाला साँचा-सच में ही  खर-दुष्ट अकरुन-जिसमें दया और करुणा न हो
 गुरहि-गुरु के उरिन-ऋण से मुक्त  गाधिसूनु-गाधि के पुत्र अर्थात्‌ विश्वामित्र  हरियरे-हरा ही हरा
अयमय-लोहे की बनी हुई खाँड़ -तलवार  ऊखमय-गन्ने  से बनी हुईं अजहूँ-अब भी

व्याख्या

लक्ष्मण परशुराम से कहते हैं–ऐसा लगता है जैसे आप मृत्यु को मेरे लिए जबरदस्ती हाँक-हाँककर ला रहे हो। लक्ष्मण के इन कठोर व्यंग्य बचनों को सुनते ही परशुराम ने अपने फरसे को सँभालकर हाथ में पकड़ लिया। बोले–अब लोग इस बालक का वध करने के लिए मुझे दोष न दें। कटु वचन बोलने वाला यह बालक वध के योग्य है। मैं इसे बालक समझकर कई बार क्षमा करता रहा, परन्तु अब कोई उपाय नहीं है। अब तो यह केवल मारने के योग्य है। बात बनती न देखकर विश्वामित्र परशुराम से बोले-हे परशुराम! आप तो साधु हैं। साधु पुरुष बालक के गुण-दोषों को नहीं गिनते। परशुराम बोले-मेरे पास तीखी धार वाला बहुत पैना फरसा है। मैं दयारहित और क्रोधी स्वभाव का हूँ। मेरे समक्ष यह अपराधी और गुरुद्रोही लक्ष्मण खड़ा है जो मुझे जवाब देकर बराबर अपमानित किये जा रहा है। हे विश्वामित्र! मैं केवल तुम्हारी नम्रता के कारण ही इसको बिना मारे अर्थात्‌ जीवित छोड़े दे रहा हूँ। नहीं तो इसको अपने इस कठोर फरसे से यहीं काट डालता तथा थोड़े-से ही परिश्रम से गुरु के ऋण से उऋण हो जाता। विश्वामित्र मन ही मन में हँसते हुए बोले-मुनि को हरा-ही-हरा दिखाई दे रहा है अर्थात्‌ अन्य सभी स्थानों पर विजय प्राप्त करने के कारण ये राम और लक्ष्मण को साधारण क्षत्रिय बालक समझ रहे हैं। मुनि अब तक नासमझ बने हुए हैं, वे राम-लक्ष्मण के पराक्रम के प्रभाव को नहीं समझ रहे। ये कोई गन्ने से बनी हुई खाँड नहीं है जो मूँह में डालते ही गल जायेगी, ये लोहे से बनी खाँड़ है अर्थात्‌ उनका व्यक्तित्व लौहमय है। वे निर्भीक, साहसी एवं पराक्रमी हैं।


काव्याश 6

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा।।
माता पितहि उरिन भये नीकें। गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें।।
सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा। दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा।।
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।
भुगुबर परसु देखाबहु मोही। बिप्र बिचारि बचों नृपद्रोही।।
मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े। द्विजदेवता घरहि के बाढ़े।।
अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे। रघुपति सयनहि लखनु नेवारे।। 

दोहा

लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।


शब्दार्थ

सीलु-शील स्वभाव बिदित-पता है उरिन-ऋणमुक्त भये-हो गए 
नीकें-भली प्रकार हमरेहि-मेरे ही ब्यवहरिआ-हिसाब लगाने वाले को बिप्र-ब्राह्मण
 सुभट-बड़े बड़े योद्धा द्विजदेवता-ब्राह्मण सयनहि-आंद के इशारे से नेवारे-मना किया
 कृसानु-अग्नि रघुकुलभानु – रघुवंश के सूर्य श्रीरामचंद्र


व्याख्या

लक्ष्मण ने परशुराम से कहा-हे मुनिवर! आपके शील-स्वभाव के विषय में कौन नहीं जानता? अर्थात्‌ इस विश्व में सब आपके शील के विषय में जानते हैं। आप अपने माता-पिता के ऋण से तो भली-भाँति उऋण हो ही चुके हैं। अब गुरु का ऋण शेष रह गया है। उससे उऋण होने की चिन्ता आपको सता रही है। वही ऋण मानो हमारे सिर पर मढ़ा है। अधिक दिन व्यतीत हो जाने के कारण उस पर ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब ऐसा कीजिए किसी हिसाब-किताब करने वाले को बुला लीजिए। मैं तुरन्त अपनी थैली खोलकर आपका ऋण चुका दूँगा। लक्ष्मण के मुख से ऐसे कटु बचनों को सुनकर परशुराम ने फरसे को सँभालकर हाथ में पकड़ लिया। ऐसा दृश्य देखकर सभा हाय-हाय चिल्लाने लगी। लक्ष्मण निर्भीकता से बोले हे भूगुवंशज परशुराम | आप मुझे बार-बार फरसा दिखा रहे हैं और है राजाओं के शत्रु मैं आपको ब्राह्मण समझकर बार-बार युद्ध करने से बचा रहा हूँ। ऐसा लगता है कि आपको युद्धभूमि में पराक्रमी योद्धा कभी नहीं मिले। इसलिए हे ब्राह्मण देवता! आप अपने घर में ही अपनी वीरता दिखाकर महान्‌ बन रहे हो। लक्ष्मण के मुख से ऐसे वचन सुनते ही सभा में उपस्थित सभी लोग ‘अनुचित है, अनुचित है।’ ऐसा कहने लगे। तब श्रीराम ने आँखों से इशारा करके लक्ष्मण को और अधिक बोलने से रोक दिया। लक्ष्मण के आहुति के समान उत्तरों से परशुराम की क्रोध रूपी अग्नि को प्रचण्ड होता देखकर रघुकुल के सूर्य श्रीराम ने शीतल जल के समान वचन बोले।
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Filed Under: Class 10, Hindi, Kshitij

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