पाठ की रूपरेखा
‘संस्कृति’ नामक पाठ में लेखक ने सभ्यता और संस्कृति के मध्य के अंतर को बताया है। साथ ही यह बताने का भी प्रयास किया है कि आज बहुत से व्यक्तियों को न सभ्यता का पता है और न ही संस्कृति का, किंतु वे संस्कृति के नाम पर समाज में भ्रम फैला रहे हैं। लेखक को संस्कृति का बँटवारा करने वालों पर आश्चर्य होता है। जो मनुष्य के लिए कल्याणकारी नहीं है, वह न सभ्यता है और न संस्कृति। लेखक ने माना है कि मानव संस्कृति अविभाज्य वस्तु है।
लेखक-परिचय
पाठ का सार
सभ्यता और संस्कृति दो ऐसे शब्द हैं, जिनका उपयोग सबसे अधिक होता है और जो सबसे कम समझे जाते हैं। स्थिति तब और भी विकट हो जाती है जब इनके साथ अनेक विशेषणों का प्रयोग होता है। लेखक इन शब्दों के अंतर को समझाने के लिए दो उदाहरण देता है। पहला उदाहरण है-अग्नि के आविष्कार का और दूसरा सुई-धागे का। जब मानव का अग्नि से परिचय नहीं हुआ था, उस समय जिस व्यक्ति ने सबसे पहले अग्नि का आविष्कार किया होगा, वह बहुत बड़ा आविष्कर्ता रहा होगा। इसी प्रकार वह व्यक्ति भी बहुत बड़ा आविष्कर्ता रहा होगा, जिसने यह कल्पना की होगी कि लोहे के एक टुकड़े को घिसकर, उसके एक सिरे को छेदकर और उसमें धागा पिरोकर कपड़े के दो टुकड़े एक साथ जोड़े जा सकते हैं। वह योग्यता, प्रवृत्ति अथवा प्रेरणा जिसके बल पर आग व सुई-धागे का आविष्कार हुआ, वह व्यक्ति विशेष की संस्कृति है, जबकि उस संस्कृति द्वारा जो आविष्कार हुआ, उसे सभ्यता कहा जा सकता है।
एक सुसंस्कृत व्यक्ति किसी नई चीज़ की खोज करता है, किंतु उसकी संतान को खोज की गई वह चीज़ अपने पूर्वज से अपने आप मिल जाती है। इस संतान को सभ्य तो कहा जा सकता है, किंतु सुसंस्कृत नहीं। उदाहरण के लिए, न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का आविष्कार किया था, किंतु आज के युग के भौतिक विज्ञान के विद्यार्थी को गुरुत्वाकर्षण के अतिरिक्त कई अन्य बातों का भी ज्ञान है, जिनसे शायद न्यूटन अपरिचित ही रहे हों। आज के विद्यार्थी को न्यूटन से अधिक सभ्य तो कह सकते हैं, किंतु न्यूटन के बराबर सुसंस्कृत नहीं कह सकते।
अग्नि अथवा सुई-धागे के आविष्कार में कदाचित पेट की ज्वाला की प्रेरणा एक कारण रही होगी। सचमुच सभ्यता का एक बड़ा अंश हमें ऐसे सुसंस्कृत व्यक्तियों से मिलता है, जिनकी चेतना पर स्थूल भौतिक कारणों का प्रभाव प्रधान रहा है, किंतु उसका कुछ अंश निश्चय ही उन मनीषियों से प्राप्त हुआ है जिन्हें तथ्य विशेष की प्राप्ति भौतिक प्रेरणा से नहीं, बल्कि अपने अंदर की सहज संस्कृति के सहारे हुई है। उदाहरणार्थ – आज वह व्यक्ति जिसका पेट भरा हुआ है और तन ढँका है, जब वह खुले आकाश के नीचे सोया हुआ रात के जगमगाते हुए तारों को देखता है तो उसे केवल इसलिए नींद नहीं आती, क्योंकि वह यह जानने के लिए परेशान है कि यह मोती भरा थाल (तारों से भरा आकाश) क्या है? इस दृष्टि से रात के तारों को देखकर न सो सकने वाला मनीषी हमारे आज के ज्ञान का प्रथम पुरस्कर्ता था।
केवल भौतिक प्रेरणा, ज्ञानेप्सा (ज्ञान प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षा) ही मानव संस्कृति के माता-पिता नहीं हैं, जो योग्यता किसी व्यक्ति या किसी महामानव से सर्वस्व त्याग करवाती है, वह भी संस्कृति है। जो दूसरों के मुँह में कौर (टुकड़ा) डालने के लिए अपने मुँह के कौर को छोड़ देता है, उसे यह बात क्यों और कैसे सूझ पाती होगी? रोगी बच्चे को सारी रात गोद में लिए बैठी माता ऐसा क्यों करती होगी? रूस का भाग्यविधाता लेनिन अपनी डैस्क में रखे हुए डबल रोटी के सूखे टुकड़ों को स्वयं न खाकर दूसरों को खिला दिया करता था। संसार के मज़दूरों को सुखी देखने का स्वप्न देखने वाले कार्ल मार्क्स ने अपना सारा जीवन दु:खों में बिता दिया। आज से ढाई हज़ार साल पहले सिद्धार्थ ने अपना घर केवल इसलिए त्याग दिया था कि किसी तरह अधिक पाने की लालच में लड़ते-झगड़ते मनुष्य आपस में सुख से रह सकें। मानव की जो योग्यता आग व सुई-धागे का आविष्कार, तारों की जानकारी और किसी महामानव से सर्वस्व त्याग कराती है-वह संस्कृति है। सभ्यता हमारी संस्कृति का परिणाम है। हमारे खाने-पीने, ओढ़ने -पहनने के तरीके, हमारे गमनागमन के साधन, परस्पर कट मरने के तरीके आदि सभ्यता हैं।
मानव की वह योग्यता जो आत्म-विनाश के साधनों का आविष्कार कराती है, असंस्कृति है। जिन साधनों के बल पर वह दिन-रात आत्म-विनाश में जुटा हुआ है, वह असभ्यता है। यदि संस्कृति का नाता कल्याण की भावना से टूट जाएगा तो वह असंस्कृति बन जाएगी जिसका परिणाम असभ्यता ही होगा। वास्तव में, संस्कृति के नाम पर जिस कूड़े-करकट के ढेर का बोध होता है, वह न संस्कृति है और न रक्षणीय वस्तु। मानव संस्कृति कभी न बँटने वाली वस्तु है। इसमें जितना अंश कल्याण का है, वह अकल्याणकर की अपेक्षा श्रेष्ठ ही नहीं स्थायी भी है।
शब्दार्थ
भौतिक -पंचभूत निर्मित/सांसारिक | अग्नि-आग | साक्षात्-प्रत्यक्ष/ आँखों के सामने | अपरिचित-अनजान |
आध्यात्मिक-आत्मा-परमात्मा से संबंधित | आविष्कर्ता-आविष्कार करने वाला | प्रवृत्ति-मन का किसी विषय की ओर झुकाव | परिष्कृत-जिसका परिष्कार किया गया हो/शुद्ध किया हुआ |
अनायास-बिना प्रयास के/सुगमता से |
गुरुत्वाकर्षण – पृथ्वी के द्वारा किसी वस्तु को अपने केंद्र की ओर खींचना |
सिद्धांत-सत्य के रूप में ग्रहण किया गया निश्चित मत | ज्ञानेप्सा- ज्ञान प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षा |
कदाचित-कभी/शायद | शीतोष्ण-ठंडा और गरम | जननी- माता | निठल्ला-बेकार/अकर्मण्य |
अंश-भाग | स्थूल-मूर्त | मनीषी-विद्वान/ विचारशील | पुरस्कर्ता-प्रारंभ करने वाला |
कौर-ग्रास/टुकड़ा | भाग्यविधाता- भाग्य बनाने वाला | तृष्णा-प्यास/लोभ | वशीभूत -अधीन |
परिणाम-नतीजा/फल | गमनागमन-यातायात/ आना-जाना | अवश्य॑भावी- जिसका होना निश्चित हो/अनिवार्य | दलबंदी-दल अथवा गुट बनाना एवं उसका संगठन करना |
रक्षणीय-रक्षा करने योग्य | प्रज्ञा-बुद्धि/विवेक मैत्री-मित्रता | अविभाज्य-अखंडित | श्रेष्ठ-सर्वोत्कृष्ट |
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