लेखक – परिचय
महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म बर्ष 1864 में उत्तर प्रदेश के रायबरेली ज़िले के दौलतपुर गाँव में हुआ। स्कूली शिक्षा के पूर्ण होने पर इन्होंने रेलवे में नौकरी कर ली। नौकरी को छोड़कर वर्ष 1903 में इन्होंने हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती का संपादन प्रारंभ किया और वर्ष 1920 तक इसके संपादक रहे। इनके द्वारा रचित रसज्ञ रंजन, साहित्य-सीकर, साहित्य-संदर्भ अद्भुत आलाप प्रसिद्ध निबंध संग्रह हैं। संपत्तिशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं आध्यात्मिकी दर्शन से संबंधित पुस्तक हैं, द्विवेदी कृत ‘महिला मोद’ महिलाओं के लिए उपयोगी पुस्तक है। इनकी कविताएँ ‘द्विवेदी काव्य माला’ में संकलित हैं। ‘महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली’ नाम से इनका संपूर्ण साहित्य पंद्रह खंडों में प्रकाशित है| वर्ष 1938 में इस मूर्द्धन्य साहित्यकार का देहावसान हो गया।
पाठ की रूपरेखा
प्रस्तुत लेख को लेखक द्वारा प्रथम बार वर्ष 1914 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में ‘पढ़े-लिखों का पांडित्य’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया था। लेखक का मानना है कि समाज में स्त्रियाँ शिक्षा पाने एवं कार्यक्षेत्र में अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने में पुरुषों से किसी भी प्रकार से कम नहीं हैं, किंतु उन्हें इस स्थिति में आने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा।प्रस्तुत लेख में विवेक से निर्णय लेकर परंपरा में ग्रहण करने योग्य बातों को स्वीकार करने की बात की गई है। लेखक ने पुरातनपंथी विचारों वाले उन व्यक्तियों का विरोध किया है, जो स्त्री शिक्षा को व्यर्थ अथवा समाज के विघटन का कारण समझते हैं। लेखक के अनुसार, स्त्री शिक्षा समाज और राष्ट्र के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है।
शब्दार्थ
शोक-दुःख | विद्यमान-उपस्थित | धर्मतत्व -धर्म का सार | दलील-तर्क |
कुमार्गगामी- बुरी राह पर चलने वाला | सुमार्गगामी-अच्छी राह पर चलने वाला | अधार्मिक-धर्म से संबंध न रखने वाला | नियमबद्ध-नियमों के अनुसार |
कुलीन-अच्छे कुल की | अपढ़- अनपढ़ | चाल-रीति/परंपरा | फ्रगाली- तरीका |
अनर्थ- अर्धहीन | गँवार-मूर्ख | कहु- असहय | दुष्परिणाम-बुरा नतीजा |
उपेक्षा-ध्यान न देना | प्राकृत-एक प्राचीन भाषा | वेदांतवादिनी – -वेदांत दर्शन पर बोलने वाली | दर्शक ग्रंथ -जानकारी देने बाला ग्रंथ |
समस्त -संपूर्ण | सबूत-प्रमाण | चेला – शिष्य | धर्मोपदेश -धर्म का उपदेश |
पंडित-विद्वान् | द्वीपतर -अन्य द्वीप अथवा देश | अस्तित्व-विद्यमान होना | प्रगल्भ -प्रतिभावान |
नामोल्लेख-नाम का उल्लेख | तत्कालीन-उर्स समय का | तर्कशास्तज्ञता-लर्कशास्त्र को जानना | न्यायशीलता- न्यायपूर्ण आचरण करना |
बलिहारी-निछावर होना | आदृत- सम्मानित | विज्ञ-समझदार | विद्वान -बेद पढ़ने-पढ़ाने वाला |
सहधर्मचारिणी-पत्नी | छक्के छुड़ाना-हौंसला पस्त करना | मुकाबला-सामना | दुराचार-निंदनीय आचरण |
कालकूट- विष | पीयूष-अमृत | दृष्टांत-उदाहरण | विपक्षी-विरोधी |
हवाला-उदाहरण, प्रमाण का उल्लेख | सूचक-द्योतक/सूचना देने वाला | पुराणकार-पुराण के रचयिता | निरक्षर-जिसे अक्षर का ज्ञान न हो |
अल्पज्ञ-थोड़ा जानने वाला | गँवारपन-मूर्खता | प्राक्कालीन- पुरानी | सोलहों आने-पूर्णतः |
संशोधन-सुधार | अपकार-अहित | अभिज्ञता- ज्ञान, जानकारी | मुमानियत-रोक, मनाही |
पापाचार-पापपूर्ण आचरण | हरगिज़-कदापि, किसी हालत में | अकुलीनता-कुल विरुद्ध आचरण | सर्वधा-सदा |
नीतिज्ञ-नीति के जानकार | कुल-परिवार | मिथ्यावाद- झूठी बात | ग्रहग्रस्त-पाप ग्रह से प्रभावित |
धर्मशास्त्रज्ञता-धर्मशास्त्र को जानना | परित्यक्त-पूर्ण रूप से त्यागा हुआ | बातव्यथित-बातों से दुःखी होने वाला |
गई-बीती-निम्न स्तर की
|
अस्वाभाविकता-असहजता | दुर्वाक्य-निंदात्मक वाक्य | किंचित-थोड़ा |
प्रत्यक्ष-जो सामने हो
|
विक्षिप्त-पागल |
पाठ का सार
लेखक के अनुसार, समाज में आज भी कुछ ऐसे व्यक्ति हैं, जो स्त्रियों को शिक्षित करना उनके और गृह-सुख के नाश का कारण मानते हैं। ऐसे लोगों का प्रथम तर्क यह है कि पुराने संस्कृत कवियों के नाटकों में कुलीन स्त्रियों से अनपढ़ों की भाषा में बातें कराना इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि इस देश में स्त्रियों को शिक्षित करने का चलन नहीं था। उनका दूसरा तर्क यह है कि स्त्रियों को शिक्षित करने से अनर्थ हो जाते हैं। अपनी बात के समर्थन में वे शकुंतला का उदाहरण देते हैं। उनका तीसरा तर्क यह है कि जिस भाषा में शकुंतला ने श्लोक रचा था, वह अशिक्षितों की भाषा थी, इसलिए स्त्रियों को अशिक्षितों की भाषा पढ़ाना भी स्त्रियों को बरबाद करने के बराबर है।
लेखक के अनुसार, नाटकों में स्त्रियों का प्राकृत बोलना उनके अशिक्षित होने. का प्रमाण नहीं है। प्राकृत उस समय साधारण बोलचाल की भाषा थी। यही कारण है कि स्त्रियाँ इस भाषा का प्रयोग किया करती थीं। उत्तररामचरित में ऋषियों की वेदांतवादिनी पत्नियाँ संस्कृत बोला करती थीं। शिक्षितों का समुदाय संस्कृत ही बोलता था, भवभूति और कालिदास आदि के नाटकों में इस बात के प्रमाण हैं।
लेखक के अनुसार, उस समय की भाषा प्राकृत थी। इसके प्रमाण में वह बौद्धों और जैनों के हज़ारों ग्रंथों का उदाहरण देते हैं। भगवान शाक्य मुनि और उनके शिष्य प्राकृत भाषा में ही उपदेश दिया करते थे। त्रिपिटक ग्रंथ की रचना भी प्राकृत भाषा में की गई थी। जिस समय आचार्यों ने नाटयशास्त्र संबंधी नियम बनाए थे, उस समय सर्वसाधारण की भाषा संस्कृत नहीं थी। ऐसे कुछ ही लोग थे, जो संस्कृत लिख और बोल सकते थे। यही कारण है कि संस्कृत और प्राकृत बोलने का नियम बना दिया गया। इस प्रकार प्राकृत बोलना और लिखना अनपढ़ होने का चिह्न नहीं है।पुराने ज़माने में स्त्रियों के लिए कोई विश्वविद्यालय नहीं था, अतः पुराणों में नियमबद्ध प्रणाली का कोई उल्लेख नहीं है। उदाहरण के लिए; पुराने ज़माने में विमान उड़ते थे, पर इस विद्या को सिखाने वाला कोई शास्त्र न था। इसी तरह बड़े-बड़े जहाज़ों पर सवार होकर लोग दूर-दूर जाते थे, परंतु जहाज़ बनाने की नियमबद्ध प्रणाली का कोई ग्रंथ नहीं मिलता।
लेखक का मत है कि वेदों को प्रायः सभी हिंदू ईश्वरकृत मानते हैं। ईश्वर वेद मंत्रों की रचना अथवा उनका दर्शन विश्ववरा आदि स्त्रियों से कराता है। इसके विपरीत हम उन्हें शिक्षा देना पाप समझते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि शीला और विज्जा आदि स्त्रियाँ बड़े-बड़े पुरुष कवियों से भी अधिक सम्मानित हैं। बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक के अंतर्गत थेरीगाथा में जिन सैकड़ों स्त्रियों की पद्य रचना उद्धृत हैं, वे निश्चय ही शिक्षित थीं। अत्रि की पत्नी, धर्म पर व्याख्यान देते हुए घंटों पांडित्य का प्रमाण दिया करती थीं। गार्गी ने बड़े-बड़े ब्रह्मवादियों को पराजित किया। इसे पढ़ने का पाप नहीं कहा जा सकता।
इस बात को माना जा सकता है कि पुराने समय में स्त्रियाँ पढ़ी-लिखी नहीं थीं और उन्हें पढ़ाने-लिखाने की आवश्यकता नहीं समझी गई होगी। आज जब उन्हें शिक्षित करने की आवश्यकता है, तो उन्हें यह अवसर दिया जाना चाहिए। जब हमने सैकड़ों वर्षों पूर्व बने पुराने नियमों को तोड़ दिया है, तो स्त्रियों को न पढ़ाने के नियम को भी तोड़ा जा सकता है। जो लोग यह मानते हैं कि प्राचीन काल की सभी स्त्रियाँ अशिक्षित थीं, उन्हें श्रीमदभागवद, दशमस्कंध के उत्तरार्द्ध का तिरेपनवाँ अध्याय अवश्य पढ़ना चाहिए, जिसमें रुक्मिणी ने संस्कृत में एक लंबा-चौड़ा पत्र एकांत में बैठकर लिखने के पश्चात् उसे एक ब्राह्मण के हाथ श्रीकृष्ण को भेजा था। इससे पता चलता है कि वह अल्पज्ञ नहीं, बल्कि शिक्षित थीं।
कुछ लोगों के अनुसार स्त्रियों को पढ़ाने का परिणाम अनर्थ है। यदि स्त्रियों को शिक्षित करने का परिणाम अनर्थ है, तो पुरुषों का किया हुआ अनर्थ भी उनके शिक्षित होने का ही परिणाम है। बम के गोले फेंकना, नरहत्या करना, डाके डालना, चोरियों करना, घूसखोरी आदि यदि शिक्षित होने के प्रमाण हैं तो सारे कॉलिज, स्कूल और विश्वविद्यालयों को बंद कर दिया जाना चाहिए क्या शकुंतला को दुष्यंत को कटु वाक्य कहने के स्थान पर यह कहना चाहिए था-आर्य पुत्र, शाबाश! आपने यह बड़ा अच्छा काम किया, जो मेरे साथ गांधर्व-विवाह करके मुकर गए। सीता ने भी कहा था-लक्ष्मण! ज़रा उस राजा से कह देना कि मैंनें तो तुम्हारी आँखों के सामने ही आग में कूदकर अपनी विशुद्धता प्रमाणित कर दी थी फिर दूसरों के मुख से मिथ्या बातें सुनकर मुझे अपने से अलग क्यों कर दिया। वस्तुतः पढ़ना-लिखना और शिक्षा पाना अनर्थ की बात नहीं है| अतः स्त्रियों को शिक्षित अवश्य किया जाना चाहिए।
शिक्षा एक अत्यंत व्यापक शब्द है, जिसमें सीखने योग्य अनेक विषयों को शामिल किया जा सकता है। यदि कोई यह समझे कि इस देश की शिक्षा प्रणाली अच्छी नहीं है, इसलिए स्त्रियों को नहीं पढ़ाना चाहिए, तो यह पूरी तरह से गलत है। इसके स्थान पर शिक्षा प्रणाली में संशोधन किया जा सकता है। प्रणाली बुरी होने का अर्थ यह नहीं है कि सारे स्कूल और कॉलिज को बंद कर दिए जाएँ। हाँ, इस बात पर बहस की जा सकती है कि स्त्रियों को किस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए, किंतु यह कहना पूर्णतः अनुचित है कि उन्हें शिक्षित करना अनर्थ करने के बराबर है। पढ़ने-लिखने में कोई दोष नहीं है। अतः पढ़ना और पढ़ाना पूरी तरह से सही है।
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