लेखक-परिचय
यर्तीद्र मिश्र का जन्म 12 अप्रैल, 1977 को उत्तर प्रदेश के अयोध्या में हुआ। लखनऊ विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. करने वाले यतींद्र इन दिनों ‘सहित’ (अर्द्धवार्षिक) पत्रिका के संपादन के साथ-साथ स्वतंत्र लेखन से भी सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं। यह वर्ष 1999 से सांस्कृतिक न्यास “विमला देवी फाउंडेशन! का संचालन कार्य भी बखूबी निभा रहे हैं। इनके चार प्रसिद्ध काव्य-संग्रह हैं-‘यदा-कदा’, ‘अयोध्या तथा अन्य कविताएँ”, ‘डयोढ़ी पर आलाप’ तथा ‘विभास’। इन्होंने शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी के जीवनी रूप में “गिरिजा’ और प्रसिद्ध शहनाई वादक भारत रत्न बिस्मिल्लाह खाँ की समर्पित ‘सुर की बारादरी’ पुस्तक की रचना की। यह एक अच्छे फ़िल्म समीक्षक भी हैं। इन्हें भारतभूषण अग्रवाल कविता सम्मान, रज़ा पुरस्कार, राजीव गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार, हेमंत स्मृति कविता पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान आदि से विभूषित किया जा चुका है।
पाठ की रूपरेखा
नौबतखाने में इब्रादत प्रसिद्ध शहनाई बादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ पर रोचक शैली में लिखा गया व्यक्ति-चित्र है। यर्तीद्र मिश्र ने बिस्मिल्ला खाँ के परिचय के साथ-साथ उनकी रुचियों, उनके अंतर्मन की बुनावट, संगीत साधना और लगन को संवेदनशील भाषा में व्यक्त किया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि संगीत एक आराधना है। इसका एक विधि-विधान है। संगीत एक शास्त्र है, केवल इससे -परिचय ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि इसे पूर्ण रूप से पाने के लिए उसका अभ्यास, गुरु-शिष्य परंपरा, पूर्ण तन्मयता, धैर्य और मंथन भी ज़रूरी है।
शब्दार्थ
ड्योढ़ी -दहलीज़ | वाज़िब-उचित | लिहाज-ख़याल | गोया-मानो/जैसे |
नौबतखाना- प्रवेश द्वार के ऊपर मंगल ध्वनि बजाने का स्थान | राग-विशेष सुर-लय से युक्त ध्वनि-समूह | भीमपलासी, मुलतानी-रागों के नाम | रोज़नामचे-हर दिन का ब्यौरा लिखने वाली नोटबुक |
मामाद्वय- दोनों मामा | रियासत-राज/शासन | विग्रह-मूर्ति | पेशा-व्यवसाय |
ननिहाल-नाना का घर | पोली-खोखली | कच-साज़/बाजा | साहबज़ादा-पुत्र |
रीड- वाद्ययंत्र की नाड़ी जिससे आवाज़ निकलती है | बोल-बनाव-शब्दों को विभिन्न सुरों में गाना या बजाना | सुषिर-वाद्य-फूँककर बजाए जाने वाला वाद्ययंक्र | मुरछंग-एक लोक बाजा/ प्रभामंडलः |
मसलन-उदाहरण स्वरूप | रियाज़-अभ्यास | मार्फ़त-द्वारा | आसक्ति-लगाव |
अबोध- बोधरहित/छोटी | उकेरना-खींचना | वैदिक-वेद से संबद्ध | शास्त्रांतर्गत- शास्त्र के अंतर्गत |
श्रृंगी – सींग से निर्मित एक साज़ | इबादत- उपासना | बख्शना-दान देना | तासीर-प्रभाव/गुण |
झंपूरक-अच्छी तरह भर लेने वाला | नेमत-ईश्वरीय देन/धन-दौलत | सज़दा-ईश्वर के सामने सिर झुकाना | अनगढ़-बिना गढ़ा हुआ/उजहड |
मेहरबान-कृपालु | मुराद-चाह/माँग | ऊहापोह- उलझन | शरण-आश्रयः |
गमक-सुगंध | तमीज़-अदब | सलीका-ढंग/शऊर | शिरकत-भाग लेना |
नौहा-करबला के शहीदों पर केंद्रित शोक गीत |
सम-जहाँ संगीत में लय का अंत हो
|
आरोह-अवरोह-संगीत में सुरों का उतार-चढ़ाव | सेहरा-बन्ना-सेहरा के समय गाया जाने वाला गीत |
सुकून-चैन | शहादत-शहीदी | गमज़दा- दुःखपूर्ण | जुनून-उन्माद |
बदस्तूर-यथावत/तरीके से | कायम-विद्यमान | ज़िक्र-उल्लेख | नैसर्गिक-स्वाभाविक |
खारिज़-रदृद करना | दाद-शाबाशी | हासिल-प्राप्त | रियाजी – अभ्यासी |
स्वादी-खाने के प्रिय | अद्भुत-अनोखा | उत्कृष्ट-उम्दा | मजहब-धर्म |
इस्तेमाल-प्रयोग | अकसर-प्राय | मेहनताना-पारिश्रमिक | पुश्त-पीढ़ी |
तालीम-शिक्षा | अदब-शिष्टाचार | जननत-स्वर्ग | आनंदकानन-सुख का वन |
रसिक-प्रेमी | उपकृत-एहसानमंदः | वहज़ीब-शिष्टता | तहमद-लुंगी/एक वस्त्र |
सिर चढ़कर बोलना-अत्यधिक प्रभावित करना | सरगम-सुरीली ध्वनियों का समूह | सुबहानअल्लाह- पाक है ईश्वरके लिए | सतक -सप्तक/सात स्वरों की श्रृंखला |
परवरदिगार-ईश्वर | बेताला- लयरहित | नसीहत-राय | उपज-नई तानः |
करतब-कोशल | अज़ान-नमाज़ | दुआ-प्रार्थना | शिदृवत- प्रबलता |
खलना-खटकना | अफसोस-पछताव | जिजीविषा-जीने की इच्छा | अजेय-सदा विजयी |
संगतिया-गाने-बजाने बालों की मंडली में शामिल व्यक्ति | कौम- बंश/जाति | नायाब -दुर्लभ | मरण-मृत्यु |
अलंकृत-सुशोभित | थाप -तबले आदि पर हथेली से निकाला गया ‘थप्प’ का स्वर | लुप्त- गायब |
पाठ का सार
अमीरूद्दीन आयु में अभी केवल छ: वर्ष का है और उसका बड़ा भाई शम्सुद्दीन नौ वर्ष का है। अमीरुद्दीन को रागों की अधिक जानकारी नहीं है। दोनों भाइयों के मामा बात-बात पर कल्याण, भैरवी, ललित, भीमपलासी और मुल्तानी रागों की बातें कहते रहते हैं, जबकि वो बातें उन दोनों की समझ में नहीं आती। दोनों मामा सादिक हुसैन तथा अलीबख्श देश के जाने-माने शहनाई वादक हैं। उनकी दिनचर्या में बालाजी का मंदिर सबसे ऊपर आता है तथा उनके हर दिन की शुरुआत इसी की ड्योढ़ी (दहलीज़) पर होती है।
अमीरुद्दीन का जन्म बिहार के डुमराँव में एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ था। बालक अमीरुद्दीन 5-6 वर्ष डुमराँव में बिताकर अपने ननिहाल काशी (बनारस) आ गया। डुमराँव का इतिहास में कोई स्थान नहीं है, केवल इस तथ्य के अतिरिक्त कि शहनाई बजाने के लिए जिस रीड का प्रयोग होता है, वह नरकट (एक प्रकार की घास) से बनाई जाती है और यह घास डुमराँव में मुख्यतः सोन नदी के किनारे पाई जाती है। अमीरुदृदीन के परदादा उस्ताद सलार हुसैन खाँ डुमराँव के निवासी थे।
अमीरुद्दीन (बिस्मिल्ला खाँ) को 14 साल की उम्र में पुराने बालाजी के मंदिर के नौबतखाने में रियाज़ (अभ्यास) के लिए जाना पड़ता था। बालक अमीरुद्दीन को बालाजी मंदिर तक जाने का वह रास्ता पसंद था, जो रसूलन बाई और बतूलन बाई के यहाँ से होकर गुज़रता था, क्योंकि उनके गानों को सुनकर उसे अत्यंत प्रसन्नता होती थी।अपने ढेरों साक्षात्कारों में बिस्मिल्ला खाँ साहब ने इस बात को स्वीकार किया है कि उन्हें अपने जीवन के आरंभिक दिनों में संगीत से लगाव इन्हीं गायिका बहनों के कारण हुआ।
वैदिक इतिहास में शहनाई का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसे संगीत शास्त्रों के अंतर्गत ‘सुषिर-वाद्यों’ में गिना जाता है। अरब देश में फूँंककर बजाए जाने वाले वाद्य को ‘नय” बोलते हैं। शहनाई को ‘शाहेनय’ अर्थात् ‘सुषिर वाद्यों में शाह’ की उपाधि दी गई है। अस्सी बरस की आयु में भी वे यही सोचते रहते थे कि उनमें सुरों को सलीके से बरतने का गुण कब आएगा। शहनाई की इसी मंगलध्वनि के नायक बिस्मिलला खाँ अस्सी बरस से सुर माँग रहें है। वे नमाज़ के बाद सजदे में एक सुर देने तथा सुर में वह तासीर (प्रभाव) पैदा करने की प्रार्थना करते हैं कि आँखों से सच्चे मोती की तरह आँसू निकल आएँ। मांगलिक विधि-विधानी मैं प्रयुक्त होने वाला यह वाद्य यंत्र दक्षिण भारतीय ‘नागस्वरम’ बाद्ययंत्र के समान प्रभात की मंगलध्वनि का संपूरक भी है।
मुहर्रम के महीने में शिया मुसलमान हजरत इमाम हुरौन एवं उनके कुछ वंशजों के प्रति दस दिनों की अज़ादारी (शोक) मनाते हैं। यह कहा जाता है कि बिस्मित्ला खाँ के खानदान का कोई व्यक्ति मुहर्रम के दिनों में न तो शहनाई बजाता है, न ही किसी संगीत के कार्यक्रम में सम्मिलित होता है। आठवीं तारीख को खाँ साहब खड़े होकर शहनाई बजाते हैं। इसी दिन वह दालमंडी में फातमान के करीब आठ किलोमीटर की दूरी तक पैदल रोते हुए, नौहा बजाते हुए जाते हैं। इस दिन कोई राग नहीं बजता। उनकी ऑँखें इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोगों की शहादत में नम रहती हैं।
बिस्मिल्ला खाँ छुपकर नाना को शहनाई बजाते हुए सुनते थे। जब सब लोग रियाज़ के बाद अपनी जगह से उठकर चले जाते तब बिस्मिल्ला खाँ ढेरों छोटी-बड़ी शहनाइयों में से अपने नाना वाली शहनाई ढूँढते और एक-एक शहनाई को फेंककर खारिज (रद्द) करते जाते। उन्हें बचपन में फ़िल्मों का बहुत शौक था। उन दिनों थर्ड क्लास का टिकट छ: पैसे में मिलता था। वह इसके लिए दो पैसे मामू से, दो पैसे मौसी से और दो पैसे नानी से लेकर घंटों लाइन में लगकर टिकट हासिल करते थे।
वह सुलोचना की फ़िल्मों के बहुत बड़े शौकीन थे। इधर सुलोचना की नई फ़िल्म सिनेमाहॉल में आई और उधर अअमीरुद्दीन अपनी कमाई लेकर चले फ़िल्म देखने, जो बालाजी मंदिर पर रोज़ शहनाई बजाने से उन्हें मिलती थी। इसी तरह वह कुलसुम की देशी घी में तली संगीतमय कचौड़ी ‘के भी शौकीन थे। संगीतमय कचौड़ी इसलिए, क्योंकि कुलसुम ‘जब कलकलाते घी में कचौड़ी डालती थी, तो उस समय छन्न से उठने वाली आवाज़ में उन्हें सारे आरोह-अवरोह दिख जाते थे।
काशी में संगीत कार्यक्रम के आयोजन की परंपरा पिछले कई वर्षों से शहर के दक्षिण में लंका पर स्थित संकटमोचन मंदिर में चली आ रही थी। हनुमान जयंती के अवसर पर यहाँ पाँच दिनों तक शास्त्रीय एवं उपशास्त्रीय गायन-वादन की उत्कृष्ट सभा होती थी। इसमें बिस्मिल्ला खाँ अवश्य रहते थे।बिस्मिल्ला खाँ की काशी विश्वनाथ जी के प्रति भी अपार श्रद्धा थी। वे जब भी काशी से बाहर रहते, तब विश्वनाथ व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुँह करके बैठते और थोड़ी देर ही सही, मगर उसी ओर शहनाई का प्याला घुमा दिया जाता था।
बिस्मिल्ला खाँ ने इस बात को स्वीकार किया है कि काशी की धरती को छोड़कर वह कहीं नहीं जा सकते, क्योंकि यहाँ गंगा मइया सहित बाबा विश्वनाथ व बालाजी का मंदिर है, जिसमें उनके खानदान की कई पीढ़ियों ने शहनाई बजाई है। उनके लिए शहनाई और काशी से बढ़कर इस धरती पर और कोई जन्नत नहीं। काशी संस्कृति की पाठशाला है और यहाँ कलाधर हनुमान व नृत्य-विश्वनाथ हैं। काशी में हज़ारों सालों का इतिहास है। यहाँ की संस्कृति, संगीत, मंदिर, भक्ति, आस्था सब एक-दूसरे में घुल-मिल गए हैं, उन्हें अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता।
बिस्मिल्ला खाँ और उनकी शहनाई दोनों एक-दूसरे के पर्याय थे।खाँ साहब को ताल मालूम था, राग मालूम था। एक बार उनकी किसी शिष्या ने उन्हें फटी तहमद पहनने के लिए टोकते हुए कहा कि इतनी प्रतिष्ठा और भारतरत्न जैसा सम्मान मिलने के बाद उनको फटी तहमद नहीं पहननी चाहिए। बिस्मिल्ला खाँ का उत्तर था कि सम्मान उन्हें उनकी शहनाई के कारण मिला है न कि वस्त्र के कारण। उनका कहना था कि मालिक से यही दुआ है कि सुर न फटे, चाहे तहमद फट जाए, क्योंकि फटी तहमद तो सिल जाएगी।
बिस्मिल्ला खाँ को यह दुःख है कि अब काशी में पहले वाली मलाई बरफ़, कचौड़ी-जलेबियाँ नहीं मिलतीं और न संगतियों के लिए गायकों के मन में पहले जैसा कोई आदर ही रहा। अब घंटों रियाज़ को कोई नहीं पूछता।! कजली, चैती और शिष्टाचार वाले पहले के समय को याद कर वे भावविभोर हो जाते हैं, जिसका आज अभाव है। इसके उपंरात भी काशी की सुबह व शाम आज भी संगीत के स्वरों के साथ होती है। यह एक पावन भूमि है। यहाँ मरना की मंगलदायक है। यह दो कोमों की एकता का प्रतीक है। भारतरत्न से लेकर इस देश के ढेरों विश्वविद्यालयों की मानद उपाधियों से अलंकृत व संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार एवं पद्मविभूषण जैसे अनेक सम्मानों से विभूषित बिस्मिल्ला खाँ का नब्बे वर्ष की भरी-पूरी आयु में 21 अगस्त, 2006 को स्वर्गवास हो गया।
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