पाठ की रूपरेखा
एक कहानी यह भी” नामक पाठ लेखिका द्वारा सिलसिलेवार लिखी गई आत्मकथा का हिस्सा नहीं है, बल्कि उन्होंने इसमें ऐसे व्यक्तियों और घटनाओं के विषय में लिखा है, जिनका संबंध उनके लेखकीय जीवन से रहा है। लेखिका ने अपने किशोर जीवन से जुड़ी घटनाओं और विशेष रूप से अपने पिताजी तथा कॉलिज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल के विषय में बताते हुए स्वतंत्रता आंदोलन का भी वर्णन किया है। लेखिका ने अपने परिवार और कॉलिज की कुछ घटनाओं का वर्णन करते हुए अपने पिता के स्वभाव में क्षण-क्षण में आने वाले परिवर्तनों को भी बताया है। लेखिका द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन में की गई भागीदारी में उनका उत्साह, ओज, संगठन क्षमता और विरोध करने का स्वरूप प्रशंसनीय है।
लेखिका-परिचय
शब्दार्थ
सिलसिला-क्रम | निहायत-एकदम | डिक्टेशन-इमला | ओहदा-पद |
दरियादिली-अति उदारता | अहंवादी-घमंडी | भग्नावशेष-खंडहर | बल-बूता-ज़ोर/ताकत |
यश-नाम/ख्याति | अर्थ-धन-दौलत | विस्फारित-फैला हुआ | भागीदार-हिस्सेदार |
हाशिए-किनारे | यातना-कष्ट | विश्वासघात-धोखा/द्रोह | शक्की-शक करने वाला |
पितृ-गाथा-पिता की कथा | खूबी-अच्छाई | खामी-बुराई/कमी | दायरा-कार्य क्षेत्र |
बाना – वस्त्र तैयार करने हेतु चौड़ाई में भरे जाने वाला सूत | कुंठा-निराशाजन्य अतृप्त भावना | प्रतिच्छाया-प्रतिरूप/चित्र | पैतृक-पुराण-पिता से संबंधित कथा |
ग्रंथि-गाँठ/गिरह | मरियल- शक्तिहीन | उबरना-छुटकारा पाना | ज़िक्र-उल्लेख |
अचेतन- संज्ञाशून्य | पर्त-परत/तह | तुक्का-बेकार उपाय | आसन्न-संबंधित/जुड़ा हुआ |
भन्नाना- झल्लाना | व्यधा-दुःख | अहसास-अनुभव/प्रतीति | फ़रमाइश- अनुरोध |
प्रवाह-बहाव | कदर-तरह | ज़्यादती-अत्याचार | प्राप्य- प्राप्त करने योग्य |
ज़िद-हठ | फ़र्ज़-कर्तव्य | सहिष्णुता- सहनशीलता | विच्छिन्न-अलग किया हुआ |
पाबंदी-प्रतिबंध | शिद्दत-प्रबलता/कठोरता | फ़्लैट-मकान | कल्चर-संस्कृति |
पाक-शास्त्री-भोजन बनाने का विशेषज्ञ | अंतराल-दो बिंदुओं के मध्य का समय | भाव-भंगिमा-मनोभावों को प्रकट करने वाला अंग संचालन | नुस्खा-दवा एवं उसकी सेवन विधि |
संकुचित-सीमित | छत्र-छाया-सुखद आश्रय/शरण | वजूद-अस्तित्व/सत्ता | सुघड़-कुशल |
भटियारखाना-असभ्य लोगों की बैठक | जमावड़ा-एक स्थान पर इकट्ठा हुए व्यक्तियों का समूह | आग-बबूला होना-अति क्रोधित होना | बिलाना-खोना |
भट्टी-चूल्हा | शगल-काम धंधा/हॉबी | रोमानी-रोमांटिक | आक्रांत-कष्ट ग्रस्त |
आलम-स्थिति/संसार | अहमियत-महत्त्व | मंथन-मथना | नैतिक-नीति से संबंधित |
धारणा-व्यक्तिगत विश्वास | दमखम-ताकत | जोश-खरोश-उत्साह | उन्माद-जुनून/सनक |
बवंडर-उपद्रव/ आँधी-तूफ़ान | निषेध-मनाही | वर्जना-निषेध | वर्चस्व-दबदबा |
कोप-क्रोध | गुबार-उद्गार | रौब-धाक/दबदबा | गद्गद – प्रसन्न |
अवाक्-आश्चर्यचकित | हकीकत-सच्चाई | हकीकत-सच्चाई | हुड़दंग-उपद्रव |
दकियानूसी-पुराने विचारों का समर्थक |
अंतर्विरोध-मन की भावनाओं में विरोध
|
निषिद्ध-जिस पर रोक लगाई गई हो | प्रतीक्षित-जिसकी प्रतीक्षा की गई हो |
ख़याल-विचार | धू-धू करना-निंदा करना | अंतरंग-घनिष्ठ | गर्मजोशी- जोशसहित |
रिअली-वास्तव में | प्राउड-गर्व | मिस्ड-खोया | समर्थिंग- कुछ |
धुआँधार-ज़ोरदार | तारीफ़-प्रशंसा | झिझक-हिचक | विशिष्ट-उत्तम |
चिर-प्राचीन |
पाठ का सार
लेखिका ने अपने जन्म स्थान गाँव भानपुरा, ज़िला मंदसौर (मध्य प्रदेश) के साथ-साथ राजस्थान स्थित अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले के दो-मंज़िले मकान से जुड़ी बहुत-सी बातों को याद किया है। अजमेर के इसी दो-मंज़िले मकान में ऊपरी तल पर उनके पिता अव्यवस्थित ढंग से फैली-बिखरी पुस्तकों पत्रिकाओं और अखबारों के बीच या तो कुछ लिखते रहते थे या ‘डिक्टेशन’ देते रहते थे। नीचे के कमरों में उनकी माँ, भाई-बहन आदि रहते थे।
लेखिका के पिता अजमेर आने से पहले मध्य प्रदेश के इंदौर में रहते थे, जहाँ उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी। वह अनेक सामाजिक-राजनीतिक संगठनों से भी जुड़े थे। उन्होंने शिक्षा का न केवल उपदेश दिया, बल्कि बहुत-से विद्याथियों को अपने घर पर रखकर भी पढ़ाया है, जिसमें से कई तो बाद में ऊँचे-ऊँचे पदों पर भी पहुँचे। यह सब उनकी खुशहाली के दिनों की बात है, जो लेखिका ने सुनी हैं।
लेखिका ने स्वीकार किया है कि उनके पिताजी अंदर से टूटे हुए व्यक्ति थे, जो एक बहुत बड़े आर्थिक झटके के कारण इंदौर से अजमेर आ गए थे और केवल अपने बलबूते पर अपने अधूरे अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश (विषयवार) को पूरा कर रहे थे। इस कार्य ने उन्हें यश और प्रतिष्ठा तो बहुत दी, किंतु अर्थ नहीं दिया, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ और उनकी सकारात्मक सोच नकारात्मक सोच में परिवर्तित होती चली गई।
लेखिका को प्रतीत होता है कि उनके व्यक्तित्व में उनके पिता की कुछ कमियाँ और खूबियाँ तो अवश्य ही आ गई हैं, जिन्होंने चाहे-अनचाहे उनके भीतर कई ग्रंथियों को जन्म दे दिया। लेखिका का रंग काला है तथा बचपन में वे दुबली और मरियल-सी थीं। उनके पिता को गोरा रंग बहुत पसंद था। यही कारण है कि परिवार में लेखिका से दो साल बड़ी, खूब गोरी, स्वस्थ और हँसमुख बहन सुशीला से हर बात में उनकी तुलना की जाती थी। इससे लेखिका के भीतर हीन भावना उत्पन्न हो गई, जो आज तक है। इसी का परिणाम है कि इतना नाम और प्रतिष्ठा प्राप्त करने के पश्चात् भी जब उनकी लेखकीय उपलब्धियों की प्रशंसा की जाती है, तो लेखिका संकोच से सिमटने और गड़ने लगती हैं।
लेखिका की माँ का स्वभाव अपने पति जैसा नहीं था। वे एक अनपढ़ महिला थीं। वे अपने पति के क्रोध को चुपचाप सहते हुए स्वयं को घर के कामों में व्यस्त किए रहती थीं। अनपढ़ होने के बाद भी लेखिका की माँ धरती से भी अधिक धैर्य और सहनशक्ति वाली थी। उन्होंने अपने पति की हर ज़्यादती (अत्याचार) को अपना भाग्य समझा। उन्होंने परिवार में किसी से कुछ नहीं माँगा, बल्कि जहाँ तक हो सका, दिया ही दिया है। इसका परिणाम यह हुआ कि सहानुभूतिवश भाई-बहनों का लगाव तो माँ के साथ था, किंतु लेखिका कभी उन्हें अपने आदर्श के रूप में स्वीकार न कर पाईं।
लेखिका पाँच भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। जिस समय उनकी सबसे बड़ी बहन का विवाह हुआ, उस समय लेखिका लगभग सात साल की थीं। अपने से दो साल बड़ी बहन सुशीला के साथ लेखिका ने लड़कियों के सारे खेल खेले। वैसे तो उन्होंने लड़कों वाले खेल भी खेले, किंतु भाई घर में कम रहा करते थे, इसलिए वह लड़कियों वाले खेल अधिक खेल सकीं। उस समय पड़ोस का दायरा आज की तरह सीमित नहीं था। आज तो हर व्यक्ति अपने आप में सिमट कर रह गया है। पास-पड़ोस की यादें कई बार कई पात्रों के रूप में लेखिका की आरंभिक रचनाओं में आ गई हैं।
40 के दशक में लेखिका के परिवार में लड़कियों के विवाह की अनिवार्य योग्यता थी-सोलह वर्ष की उम्र और मैट्रिक तक की शिक्षा। वर्ष 1944 में लेखिका की बहन सुशीला ने यह योग्यता पाई और शादी करके कोलकाता चली गई। दोनों बड़े भाई भी आगे पढ़ाई करने के लिए कोलकाता चले गए। इसके बाद पिताजी का ध्यान लेखिका की ओर गया।
जिस उम्र में लड़की को स्कूली शिक्षा के साथ सुघड़ गृहिणी (घर चलाने में कुशल) और कुशल पाक-शास्त्री बनने के नुस्खे सिखाए जाते थे, उस समय पिताजी का आग्रह रहा करता था कि लेखिका रसोई नामक भटियारखाने (रसोई के काम-काज) से दूर ही रहे, क्योंकि उनके अनुसार , वहाँ रहना अपनी प्रतिभा और क्षमता को भट्टी में झोंकना था। पिताजी के पास कई पार्टियों, संगठनों के व्यक्ति आते और उनके बीच घंटों तक बहस हुआ करती थी। लेखिका जब चाय-पानी या नाश्ता देने के लिए जातीं, तो उनके पिताजी उन्हें यह कहते हुए बैठा लेते कि वह भी सुने और जाने कि देश में चारों ओर क्या हो रहा है।
वर्ष 1945 में लेखिका ने हाई स्कूल पास करके सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल जो पिछले वर्ष ही कॉलिज बना था, उसमें फर्स्ट इयर में प्रवेश लिया। उस समय उनका परिचय शीला अग्रवाल से हुआ, जो उसी वर्ष हिंदी की प्राध्यापिका नियुक्त हुई थीं। शीला अग्रवाल ने ही लेखिका का वास्तविक रूप में साहित्य से परिचय कराया और मात्र पढ़ने को, चुनाव करके पढ़ने में बदला, ज़िसका परिणाम यह हुआ कि लेखिका ने साहित्य जगत के कई प्रसिद्ध साहित्यकारों (प्रेमचंद, जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, भगवतीचरण आदि) को पढ़ा। शीला अग्रवाल ने न केवल लेखिका का साहित्यिक दायरा बढ़ाया, बल्कि घर की चारदीवारी के बीच बैठकर लेखिका ने देश की स्थितियों को जानने-समझने का जो सिलसिला शुरू किया था, उसे सक्रिय भागीदारी में बदल दिया, जिस कारण वह स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने लगीं।
लेखिका के पिता यह तो चाहते थे कि वह उनकी उपस्थिति में घर में आए लोगों के बीच उठे-बैठे, जाने-समझे, किंतु उन्हें यह बर्दाश्त नहीं था की लेखिका घर से बाहर निकलकर सड़कों पर लड़कों के साथ नारेबाज़ी करती फिरे। जब भी उन्हें यह पता चलता, वे क्रोध में आग बबूला हो उठते थे। कई बार ऐसा होता कि कोई दकियानूसी व्यक्ति पिताजी को भड़का देता कि उनकी लड़की सड़कों पर लड़कों के साथ हंगामा कर फिर रही है। यह सुनकर वे बहुत गुस्सा हो जाते, किंतु जब उन्हें पता चलता कि उनकी पुत्री को लोग बहुत सम्मान देते हैं, तो वे गर्व से भर उठते।
एक बार लेखिका के घर पर कॉलिज से प्रिंसिपल का पत्र आया, जिसमें उनकी शिकायत की गई थी। पत्र पढ़ते ही लेखिका के पिताजी क्रोध से भर उठे और उन्हें भला – बुरा कहने लगे। जब वह कॉलिज से वापस लौटे तो उनके क्रोध का स्थान प्रशंसा ने ले लिया था। उन्हें यह जानकर बहुत ख़ुशी हो रही थी कि उनकी पुत्री को कॉलिज में छात्राएँ इतना सम्मान देती हैं कि उनके एक बार कह देने पर अपनी कक्षाओं का बहिष्कार तक कर देती हैं।
वर्ष 1947 के मई माह में प्राध्यापिका शीला अग्रवाल को कॉलिज प्रशासन ने अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर नोटिस दिया, जिसमें उन पर लड़कियों की भड़काने और अनुशासन भंग करने में सहयोग करने का आरोप लगाया गया था। इसके अतिरिक्त जुलाई माह में थर्ड ईयर की क्लासेज़ बंद करके लेखिका और एक दो अन्य छात्राओं के प्रवेश पर रोक लगा दी गई। इस बात पर लड़कियों ने कॉलिज से बाहर रहकर प्रशासन के निर्णय के विरुद्ध खूब प्रदर्शन किए। इसका परिणाम यह हुआ कि कॉलिज प्रशासन को थर्ड ईयर की क्लासेज़ पुनः शुरू करनी पड़ी। उस समय इस खुशी से भी बड़ी खुशी लेखिका को देश को स्वाधीनता मिल जाने की हुई थी।
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