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Home » Class 10 » Hindi » Kshitij » बालगोबिन भगत – पठन सामग्री और भावार्थ Chapter 11 Class 10 Hindi

बालगोबिन भगत – पठन सामग्री और भावार्थ Chapter 11 Class 10 Hindi

Last Updated on April 5, 2023 By Mrs Shilpi Nagpal

Contents

  • 1 पाठ की रूपरेखा 
  • 2 लेखक-परिचय 
    • 2.1 शब्दार्थ
  • 3 पाठ का सार 
    • 3.1 बालगोबिन भगत का बाह्य एवं आंतरिक व्यक्तित्व
    • 3.2 बालगोबिन भगत का संगीत के प्रति अगाध प्रेम
    • 3.3 सुख-दुःख से ऊपर बालगोबिन भगत का चरित्र 

पाठ की रूपरेखा 

रेखाचित्र शैली मे रचित इस पाठ के अंतर्गत लेखक ने एक ऐसे पात्र का चित्रण किया है, जो कबीर के आदेशों पर चलते हुए अपने जीवन का निर्वाह करता है। ग्रामीण परिवेश को चित्रित करने के साथ-साथ इस पाठ में ग्रामीण संस्कृति को भी प्रस्तुत किया गया है। बालगोबिन भगत के बाह्य व्यक्तित्व से यह भी बताने का प्रयास किया गया है कि संन्यासी जीवन का आधार बाह्य व्यक्तित्व ही नहीं, अपितु मानवीय सरोकार होता है। बालगोबिन भगत के माध्यम से लेखक ने सामाजिक बुराइयों एवं रूढ़िवादी सोच पर प्रहार करते हुए मानवीयता की भावना को प्रतिपादित करने का प्रयास किया है।

लेखक-परिचय 

रामवृक्ष बेनीपुरी आधुनिक युग के निबंधकार हैं। उनका जन्म 1899 ई. में बिहार के मुज़फरपुर जिले के बेनीपुर गाँव में हुआ। बचपन में ही इनके माता-पिता का निधन हो गया था। वर्ष 1920 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के दौरान कई बार उन्हें जेल जाना पड़ा। अपना जीवन-यापन करने हेतु वे साहित्य कार्य में लग गए एवं बालक, युवक, योगी, नई धाग, जनवाणी, ज़नता आदि कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया| रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध आदि गद्य विधाओं में लेखन कार्य किया। उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ- अंबपाली (नाटक), माटी की मूरतें (रेखाचित्र), चिता के फूल (कहानी), पैरों में पंख बाँधकर (यात्रा-वृतांत) आदि उल्लेखनीय हैं। उनकी शैली सरल , सहज य चित्रात्मक है। विशिष्ट शैलीकार होने के कारण उन्हें ‘कलम का ज़ादूगर’ कहा जाता है। उनका देहावसान वर्ष 1968 में हो गया था।

 

शब्दार्थ

 मंझौला -मध्यम अर्थात्‌ न अधिक लंबे न अधिक छोटे जटाजूट-लंबे बालों की जटाएँ  रामान॑दी चंदन- रामानंद संप्रदाय द्वारा लगाया जाने वाला चंदन खरा व्यवहार रखना – स्पष्ट व्यवहार रखना
 कमली-कंबल बेडौल – गंदी/भद्‌दी गृहिणी-पत्नी दो-टूक बात कहना-स्पष्ट कहना
खामखाह-बेकार में  व्यवहार में लाना-उपयोग करना कुतूहल-जिज्ञासा  साहब-ईश्वर
 कबीरपंथी मठ-कबीरदास के विचारों को बताने वाला स्थान  भेंट-धार्मिक स्थल पर श्रद्धापूर्वक चढ़ाया जाने वाला प्रसाद  सजीव-जीवित  रोपनी-धान के पौधों को खेत में रोपना
सदा-सर्वदा/हमेशा कलेवा-प्रातः काल किया जाने वाला नाश्ता मेंड-खेत के किनारे बनी मिट्टी की ऊँची जगह पुरवाई-पूरब दिशा से चलने वाली हवा
स्वर-तरंग-स्वर रूपी लहर  लिथड़े-मिटटी में सने हुए   रोपनी-धान की रोपाई अधरतिया-आधी रात
दादुर-मेंढकः  कोलाहल-शोर पियवा-पिया चिहुँक-खुशी से चिल्लाना
अकस्मात-अचानक  निस्तब्धता-सन्नाटा प्रभाती-प्रातःकाल में गाया जाने वाला गीत  भिडे-मिट्टी से बना ऊँचा स्थान
पोखरे-तालाब लोही लगना-सुबह की लाली  कुहासा -कोहरा आवृत-ढका हुआ
दाँत किटकिटाने वाली भोर-वह सुबह जिसमें सर्दी के कारण दाँत किटकिटाने लगते हैं खँजड़ी-हाथों में लेकर बजाने वाला वाद्य यंत्र  उत्तेजित-जोश से भड़का हुआ  सुरूर- नशा/जोश
श्रमबिंदु – मेहनत के फलस्वरूप निकली पसीने की बूँदे सांझा -शाम के समय गाए जाने वाले भजन तिहराती- तीसरी बार कहती चरम उत्कर्ष- सबसे ऊपर
बोदा-सा-कम बुद्धि वाला   पतोहू – पुत्रवधू सुभग-भाग्यवान निवृत- मुक्त
तुलसीदल- तुलसी के पौधे का पत्ता चिराग-दीपक  तल्लीनता- डूबना विरहिनी-विरह में रहने वाली स्त्री 
 दलील-तर्क संबल-सहारा टेक – आदत  नेम- व्रत – नियम
  छीजना – कमज़ोर होना  जून-समयः तागा टूटना-जीवन की साँसें पूरी हो जाना   पंजर-शरीर

पाठ का सार 

बालगोबिन भगत का बाह्य एवं आंतरिक व्यक्तित्व

बालगोबिन भगत लगभग साठ वर्ष के मँझौले कद के गोरे-चिट्टे व्यक्ति थे। उनके बाल पक चुके थे अर्थात्‌ सफ़ेद हो गए थे। वह बहुत कम कपड़े पहनते थे, कमर पर एक लंगोटी मात्र और सिर पर कबीरपंथियों की-सी टोपी लगाते थे। वह कबीर को ही अपना “साहब” मानते थे, उन्हीं के गीतों को गाते और उन्हीं के आदर्शों पर चलते थे। वह कभी झूठ नहीं बोलते थे और सबसे खरा व्यवहार करते थे। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह कोई साधु थे, उनका एक बेटा और पतोहू (पुत्रवधु) थी। थोड़ी-सी खेतीबाड़ी और एक साफ़-सुथरा मकान था। उनका सबसे बड़ा गुण उनका मधुर कंठ और कबीर के प्रति अगाध श्रद्धा एवं प्रेम था। वे कभी किसी की चीज़ नहीं छूते, जो कुछ खेत में पैदावार होती, उसे कबीरपंथी मठ में भेंट स्वरूप ले जाकर रख देते और वहाँ से प्रसाद स्वरूप जो कुछ मिलता, उसी से गृहस्थी चलाते।

 

बालगोबिन भगत का संगीत के प्रति अगाध प्रेम

आषाढ़ की रिमझिम में जब समूचा गाँव हल-बैल लेकर खेतों में निकल पड़ता और बच्चे भी जब खेतों में उछल-कूद कर रहे होते उसी समय सबके कानों में एक मधुर संगीत लहरी सुनाई देती। उनके कंठ से निकला संगीत का एक-एक शब्द सभी को मोहित कर देता। तब पता चलता है कि बालगोबिन भगत कीचड़ में लिथड़े हुए अपने खेतों में धान के पौधों की रोपनी कर रहे हैं। काम और संगीत की ऐसी संयुक्त साधना मिलनी बहुत मुश्किल होती है। भादों की आधी रात में भी दादुरों (मेंढक) की टर्र-टर्र से भी ऊपर बालगोबिन भगत का संगीत सुनाई पड़ता है।जब सारा संसार निस्तब्धता में सोया होता है, तब बालगोबिन भगत का संगीत सभी को जगा देता है। कार्तिक में बालगोबिन भगत की प्रभातियाँ (प्रातःकाल में गाया जाने वाला गीत) प्रातःकाल में ही आरंभ हो जाती हैं। माघ में दाँत किटकिटाने वाली भोर में उनकी अँगुलियाँ खँजड़ी (ढफली के ढंग का, परंतु आकार में उससे छोटा एक वाद्य यंत्र) पर चलना आरंभ कर देती हैं और गाते-गाते वह इतने जोश में आ जाते हैं कि उनके मस्तक पर श्रमबिंदु चमक पड़ते हैं। गर्मियों की उमस भरी शाम में मित्र-मंडली के साथ बैठकर संगीत में इस प्रकार लीन हो जाते थे कि उनका मन, तन पर हावी हो जाता था अर्थात्‌ वे सब गाना गाते-गाते नृत्य भी करने लगते थे।

सुख-दुःख से ऊपर बालगोबिन भगत का चरित्र 

बालगोबिन भगत की संगीत साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखने को मिला, जब लोगों को यह पता चला कि उनका पुत्र बीमारी के बाद चल बसा। लोग जब उनके घर पहुँचे तो देखा कि भगत ने मृत पुत्र को चटाई पर लिटाकर एक सफ़ेद कपड़े से ढक रखा है तथा उस पर कुछ फूल और तुलसीदल बिखेर दिए हैं। उसके सिरहाने एक चिराग जलाकर आसन जमाए हुए गीत गाए जा रहे हैं। पतोहू को भी रोना भूलकर उत्सव मनाने को कह रहे हैं, क्योंकि आत्मा परमात्मा के पास चली गई है, जिसका शोक मनाना उनकी दृष्टि में व्यर्थ है।

बालगोबिन भगत कोई समाज सुधारक नहीं थे, किंतु अपने घर में उन्होंने समाज सुधारकों जैसा कार्य किया। अपनी पतोहू से अपने पुत्र की चिता को आग दिलाई श्राद्ध की अवधि पूरी होने पर पतोहू के भाई को बुलाकर उसके साथ भेजते हुए कहा कि इसका पुनर्विवाह कर देना, अभी यह जवान है। पतोहू के मायके न जाने की ज़िद करने और यह कहने कि मेरे जाने के बाद आपके खाने-पीने का क्‍या होगा, किंतु वे अपने निर्णय पर अटल रहे। बालगोबिन भगत की मृत्यु भी उनके व्यक्तित्व के अनुरूप शांत तरीके से हुई। करीब तीस कोस चलकर वे गंगा स्नान को गए और वहाँ साधु-संन्यासियों की संगत में जमे रहे। उन्हें स्नान की अपेक्षा साधु-संन्यासियों की संगत अधिक अच्छी लगती थी। वहाँ से लौटकर उन्हें बुखार आने लगा। इस पर भी उन्होंने अपना नित्य नियम दोनों समय का गीत, स्नान-ध्यान और खेतीबाड़ी देखना इत्यादि नहीं छोड़ा। लोगों ने नियमों में ढील देने को कहा तो हँसकर टालते रहे और शाम को भी गीत गाते रहे, किंतु उस दिन उनके गीतों में वह बात नहीं थी। अगले दिन भोर में भगत का गीत न सुनाई देने पर लोगों ने जाकर देखा तो वह स्वर्ग सिधार चुके थे। 

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Filed Under: Class 10, Hindi, Kshitij

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