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Home » Class 10 » Hindi » Kshitij » पद – पठन सामग्री और भावार्थ Chapter 1 Class 10 Hindi

पद – पठन सामग्री और भावार्थ Chapter 1 Class 10 Hindi

Last Updated on February 16, 2023 By Mrs Shilpi Nagpal

Contents

  • 1 पाठ की रूपरेखा 
  • 2 कवि-परिचय 
  • 3 पदों का भावार्थ
    • 3.1 पहला पद 
      • 3.1.1 शब्दार्थ
      • 3.1.2 व्याख्या
    • 3.2 दूसरा पद 
      • 3.2.1 शब्दार्थ 
      • 3.2.2 व्याख्या
    • 3.3 तीसरा पद 
      • 3.3.1 शब्दार्थ 
      • 3.3.2 व्याख्या
    • 3.4 चौथा पद 
      • 3.4.1 शब्दार्थ
      • 3.4.2 व्याख्या

पाठ की रूपरेखा 

सूरदास द्वारा रचित ‘सूरसागर” के “भ्रमरगीत” से यहाँ चार पद लिए गए हैं। श्रीकृष्ण ने मथुरा जाकर गोपियों को कोई संदेश नहीं भेजा, जिस कारण गोपियों की विरह वेदना और बढ़ गई। श्रीकृष्ण ने अपने मित्र उद्धव के माध्यम से गोपियों के पास निर्गुण ब्रह्म एवं योग का संदेश भेजा, ताकि गोपियों की पीड़ा को कम किया जा सके। गोपियाँ श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं, इसलिए उन्हें निर्गुण ब्रह्म एवं योग का संदेश पसंद नहीं आया। तभी एक भौंरा यानी भ्रमर उड़ता हुआ वहाँ आ पहुँचा, गोपियों ने व्यंग्य (कटाक्ष) के द्वारा उद्धव से अपने मन की बातें कहीं। इसलिए उद्धव और गोपियों का संवाद “भ्रमरगीत” नाम से प्रसिद्ध है। गेपियों ने व्यंग्य करते हुए उद्धव को भाग्यशाली कहा है, क्योंकि वे श्रीकृष्ण के सान्निध्य में रहने के बावजूद उनसे प्रेम नहीं करते और इसका प्रमाण है उद्धव द्वारा दिया गया योग साधना का उपदेश। गोपियाँ योग साधना को स्वयं के लिए व्यर्थ बताती हैं। साथ ही, उन्होंने श्रीकृष्ण को उनका राजधर्म भी याद दिलाया है। 

☛ NCERT Solutions For Class 10 Chapter 1 पद

कवि-परिचय 

हिंदी साहित्य की भक्तिकालीन काव्यधारा के कवि सूरदास का जन्म 1478 ई. में सीही नामक गाँव में हुआ था। कुछ विद्वानू उनका जन्मस्थान मथुरा के निकट रुनकता या रेणुका क्षेत्र को मानते हैं। सूरदास मंदिर में भजन-कीर्तन करते थे, जिसके कारण उनकी ख्याति जगह-जगह फैल गई। सूरदास जन्म से नेत्रहीन थे या बाद में नेत्रहीन हुए इसके निश्चित प्रमाण नहीं मिलते। वह महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य थे। सूरदास के तीन लोकप्रिय ग्रंथ- सूरसागर, साहित्य लहरी और सूरसारावली हैं। सूरदास ने कृष्णलीला संबंधी पदों की रचना सूरसागर में की, जो कि उनकी लोकप्रियता का प्रमुख आधार है। सूरदास के सभी पद गायन शैली में लिखे गए है। वे श्रृंगार और “वात्सल्य ” रस के कवि माने जाते हैं। सूरदास की भाषा सहज, स्वाभाविक व माधुर्य से परिपूर्ण ब्रजभाषा है, जिनमें अलंकारों का प्रयोग अत्यंत सुंदर ढंग से किया गया है। सूरदास का निधन 1583 ई. में पारसौली में हुआ।

पदों का भावार्थ

पहला पद 

ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यों जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकों लागी।
प्रीति नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
“सूरदास” अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यों पागी।

शब्दार्थ

ऊधौ-उद्धव अपरस-अछूता तगा-धागा/बंधन  नाहिन-नहीं
बड़भागी-भाग्यवान सनेह-स्नेह अनुरागी-प्रेम से भरा हुआ पुरइनि पात-कमल का पत्ता
हौ-हो दागी-दाग/धब्बा ज्यौं-जैसे माहँ-बीच में
ताकौं-उसको प्रीति – नदी-प्रेम की नदी पाउँ-पैर  बोरयौ-डुबोया
बोरयौ-डुबोया परागी-मुग्ध  होना अबला-बेचारी नारी भोरी-भोली
गुर चाँटी ज्यौं पागी-जिस प्रकार चींटी गुड़ में लिपटती है  अति – बहुत     

व्याख्या

गोपियाँ उद्धव की प्रेम के प्रति अनासक्ति पर व्यंग्य करते हुए कहती हैं कि हे उद्धव! तुम तो बड़े भाग्यवान हो, क्योंकि तुम प्रेम के बन्धन से दूर हो। तुमने अभी प्रेम के प्रति आकर्षण को नहीं जाना है। श्रीकृष्ण के इतने करीब रहकर भी तुम्हारा मन उनके प्रेम में नहीं डूबा है। तुम तो जल के बीच रहने वाले उन कमल के पत्तों के समान हो, जो जल में रहकर भी दाग-धब्बों से अछूते रहते हैं। जिस प्रकार, तेल से भरी गगरी को जल में डुबाने पर उस पर जल की एक भी बूँद नहीं ठहरती, ठीक उसी प्रकार तुम भी श्रीकृष्ण के निकट रहने पर भी उनके प्रभाव से मुक्त हो। तुम कभी उनके प्रेम में नहीं डूबे। तुमने कभी भी प्रेमरूपी नदी में पैर नहीं रखा और न ही तुमने किसी पर प्रेम-भरी दृष्टि डाली, ये तुम्हारी महानता है, परन्तु हम तो भोली-भाली ब्रजबालाएँ हैं जो अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के रूप-सौन्दर्य पर उसी प्रकार आसक्त हो गई हैं, जिस प्रकार चींटियाँ गुड़ के प्रति आकर्षित होकर उससे लिपट जाती हैं, फिर छूट नहीं पातीं , गुड़ पर लिपटे हुए ही अपने प्राण त्याग देती हैं। वास्तव में गोपियाँ प्रेम के प्रति अनासक्ति रखने वाले उद्धव को अभागा कहना चाह रही हैं।


दूसरा पद 

मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ , नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं मरजादा न लही।

शब्दार्थ 

माँझ-अंदर में अवधि-समय अधार-आधार आस-आशा
आवन-आने की बिथा-व्यथा/दुः:ख जोग सँदेसनि-योग के संदेशों को  बिरहिनि-वियोग में जीने वाली
बिरह दही-विरह की आग में जल रही हैं  हुतीं-थीं गुहारि-रक्षा के लिए पुकारना जितहिं तैं-जहाँ से
उत तैं-उधर से धार-योग की धारा  धीर-चैर्य  धरहिं-धारण करें/रखें
मरजादा-मर्यादा: लही-रही

व्याख्या

विरहाग्नि में दग्ध गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव! हमारे मन में जो कृष्ण प्रेम की बातें थीं वह तो तुम्हारे सन्देश को सुनने के बाद हमारे मन में ही दबी रह गईं। हम उस भावना को व्यक्त नहीं कर पायीं। हमने सोचा था कि कृष्ण के मथुरा से लौटने पर हम अपनी वियोग-व्यथा विस्तारपूर्वक उन्हें सुनायेंगी। कृष्ण के लौटकर आने की प्रतीक्षा में ही हम जी रहे थे, परन्तु अब हम क्या करें? श्रीकृष्ण तो लौटकर नहीं आये, बल्कि हमारे हृदय को व्यथित करने वाला यह योग-साधना का सन्देश तुम्हारे द्वारा भेज दिया। इस योग-सन्देश को सुनकर हमारे अन्दर विरह की ज्वाला और अधिक भड़क गयी है और हम उसमें जली जा रही हैं। हमारा दुर्भाग्य यह है कि जिधर हमें अपना रक्षक दिखाई दे रहा था, उधर से ही योग-सन्देश रूपी प्रबल धारा प्रवाहित हो रही है, अर्थात्‌ जिन्हें हम अपनी रक्षा हेतु पुकारना चाहती थीं, उन्होंने ही हमारे लिए योग-सन्देश भिजवाया है। गोपियाँ कहती हैं कि अब हम धैर्य कैसे धारण करें, जिस कृष्ण के लिए लोकलाज तथा मर्यादा को त्याग दिया था, उन्होंने ही आज हमारा त्याग कर दिया है, जिससे हमारी मर्यादा नष्ट हो गयी है।


तीसरा पद 

हमारौं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जकरी।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यों करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकों लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ ‘सूर’ तिनहिं ले सौंपो, जिनके मन चकरी।। 

शब्दार्थ 

हरि-श्रीकृष्ण हारिल-ऐसा पक्षी जो अपने पैरों में लकड़ी दबाए रहता है लकरी-लकड़ी
 क्रम-कार्य नंद-नंदन-नंद का पुत्र कृष्ण उर-हृदय पकरी-पकड़ी
दृढ़-मज़बूती से/दृढ़तापूर्वक दिवस-निसि-दिन-रात करुई-कड़वी ककरी-ककडी
जोग-योग का संदेश सु-वहः ब्याधि-रोग तिनहिं-उनको मन चकरी-जिनका मन स्थिर नहीं रहता
जक री-रटती रहती हैं

व्याख्या

उद्धव के योग-सन्देश को सुनने के पश्चात्‌ गोपियाँ उनके सभी प्रश्नों का उत्तर बड़ी दृढ़ता के साथ देती हैं। वो कहती हैं कि श्रीकृष्ण तो हमारा एकमात्र सहारा हैं। वे हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं। जिस प्रकार हारिल पक्षी सदैव लकड़ी को दृढ़ता के साथ पंजों में दबाये रखता है। उसे कभी अपने से अलग नहीं करता, उसी प्रकार हमने भी श्रीकृष्ण को मजबूती से अपने हृदय में बसा रखा है। हम उन्हें स्वयं से अलग नहीं कर सकते। मन, वचन और कर्म से हमने नंद के नंदन अर्थात्‌ श्रीकृष्ण को अपने चित्त में बसा लिया है। अब हम जागते-सोते, दिन और रात में यहाँ तक कि स्वप्न में भी कान्हा-कान्हा कहकर पुकारते रहते हैं। ऐसी दशा में योग-सन्देश सुनकर ऐसा लगता है, जैसे हमने कड़वी ककड़ी खा ली हो। तुम्हारे योग सम्बन्धी ज्ञान में हमें कोई रूचि नहीं है। हे उद्धव! तुम हमारे लिए ये कौन-सी बीमारी ले आये हो? जिसे हमने न कभी देखा है, न सुना है और न भोगा है? गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि है उद्धव! तुम ऐसा करो इस व्याधि (बीमारी) को उन लोगों को ले जाकर सौंप दो जिनके मन अस्थिर हैं तथा चक्र के समान चंचल हैं। हमारा मन तो स्थिर है। हमें आपका यह योग सन्देश अच्छा नहीं लग रहा।

चौथा पद 

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग संदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपने मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए। 
ते क्‍यों अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए। 
राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।। 

शब्दार्थ

पढ़ि आए-पढ़कर/सीखकर आए मधुकर- भौंरा , गोपियों द्वारा उद्धव के लिए प्रयुक्त संबोधन हुते-थे पठाए-भेजा
आगे के-पहले के पर हित-दूसरों की भलाई के लिए  डोलत धाए -घूमते-फिरते थे फेर-फिर से
पाइहैं-चाहिए आपुन-अपनों पर अनीति-अन्याय

व्याख्या

श्रीकृष्ण द्वारा भेजे गये योग-सन्देश को सुनकर गोपियाँ उन्हें अन्यायी तथा अत्याचारी मानने लगती हैं। उन्हें लगता है कि श्रीकृष्ण ने अब राजनीति की शिक्षा प्राप्त कर ली है तथा वे राजनीति में निपुण हो गये हैं। वे कहती हैं कि उद्धव द्वारा दिये गये समाचार सुनकर ही हमारी समझ में सारी बात आ गई थी। एक तो श्रीकृष्ण पहले से ही बहुत चालाक थे, ऊपर से उन्होंने गुरुओं द्वारा रचे ग्रन्थ भी पढ़ लिये हैं। उनकी महान्‌ बुद्धिमत्ता का अनुमान तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने हम जैसी कोमल अबलाओं के लिए इतना कर्कश योग-सन्देश भिजवाया है। हमारे हिसाब से कोमल युवतियों के लिए योग-सन्देश भिजवाने में कोई बुद्धिमानी नहीं है, क्योंकि योग-साधना युवतियों के लिए उचित नहीं है। इस विषय में श्रीकृष्ण का निर्णय विवेकपूर्ण नहीं है। गोपियाँ उद्धव को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि हे उद्धव! इससे तो पुराने जमाने के लोग अच्छे थे, जो दूसरों की भलाई के लिए दौड़कर आगे आते थे। चलो कोई बात नहीं जो होना था वह हो गया। कृष्ण ने हमें त्याग दिया। अब हमें हमारे मन वापस मिल जायेंगे, जिन्हें कृष्ण मथुरा जाते समय चुराकर ले गये थे, परन्तु एक बात हमारी समझ में नहीं आती कि जे श्रीकृष्ण दूसरों को अन्याय से बचाते हैं, वे हमारे साथ इतना बड़ा अन्याय कैसे कर सकते हैं? गोपियाँ उद्धव को राजनीति की सीख देते हुए कहती हैं कि हे उद्धव! राजधर्म तो यही कहता है कि प्रजा को सताना नहीं चाहिए फिर श्रीकृष्ण हमें क्यों सता रहे हैं? हमारी उनसे गुहार है कि वे हमारी रक्षा करें।
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Filed Under: Class 10, Hindi, Kshitij

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