पाठ का सार
लेखक-परिचय
पाठ का सार
लेखक का नाम ‘तारकेश्वरनाथ’ था, किंतु पिताजी लाड़ में उसे “भोलानाथ’ कहते थे। भोलानाथ का अपनी माता से केवल खाना खाने एवं दूध पीने तक का नाता था। वह पिता के साथ ही बाहर की बैठक में सोया करता था। पिता प्रातः काल उठकर भोलानाथ को भी साथ ही नहला धुलाकर पूजा पर बिठा लेते। पूजा-पाठ के बाद पिताजी अपनी एक ‘रामनाम बही’ पर हज़ार राम-नाम लिखकर पाठ करने की पोथी के साथ बाँधकर रख देते। कभी-कभी बाबूजी और भोलानाथ के बीच कुश्ती भी होती। पिताजी पीठ के बल लेट जाते और भोलानाथ उनकी छाती पर चढ़कर उनकी लंबी-लंबी मूँछें उखाड़ने लगता, तो पिताजी हँसते-हँसते उसके हाथों को मूँछों से छुड़ाकर उसे चूम लेते थे। भोलानाथ के पिताजी उसे अपने हाथ से, फूल (एक धातु) के एक कटोरे में गोरस (दूध) और भात सानकर भी खिलाते थे।
जब भोलानाथ का पेट भर जाता तो उसके बाद भी माँ थाली में दही-भात सानती और अलग-अलग तोता, मैना, कबूतर, हंस, मोर आदि के बनावटी नाम से कौर बनाकर यह कहते हुए खिलाती जाती कि जल्दी खा लो, नहीं तो उड़ जाएँगे, तब भोलानाथ सब बनावटी पक्षियों को चट कर जाता था। भोलानाथ की माँ उसे अचानक पकड़ लेती और एक चुल्लू कड़वा तेल उसके सिर पर अवश्य डालती थी तथा उसे सजा-धजाकर कृष्ण-कन्हैया बना देती थी।
भोलानाथ के घर पर बच्चे तरह-तरह के नाटक खेला करते थे, जिसमें चबूतरे के एक कोने को नाटक घर की तरह प्रयोग किया जाता था। बाबूजी की नहाने की छोटी चौकी को रंगमंच बनाया जाता था। उसी पर मिठाइयों की दुकान, चिलम के खोंचे पर कपड़े के थालों में ढेले के लड्डू, पत्तों की पूरी-कचौरियाँ, गीली मिट्टी की जलेबियाँ, फूटे घड़े के टुकड़ों के बताशे आदि मिठाइयाँ सजाई जातीं थीं। उसमें दुकानदार और खरीदार सभी बच्चे ही होते थे। थोड़ी देर में मिठाई की दुकान हटाकर बच्चे घरौंदा बनाते थे। धूल की मेड़ दीवार बनती और तिनकों का छप्पर। दातून के खंभे, दियासलाई की पेटियों के किवाड़ आदि। इसी प्रकार के अन्य सामानों से बच्चे ज्योनार (दावत) तैयार करते थे।
जब पंगत (सभी लोगों की पंक्ति) बैठ जाती थी, तब बाबूजी भी धीरे-से आकर जीमने (भोजन करने) के लिए बैठ जाते थे। उनको बैठते देखते ही बच्चे हँसते हुए घरौंदा बिगाड़कर भाग जाते थे। कभी-कभी बच्चे बारात का भी जुलूस निकालते थे। बारात के लौट आने पर बाबूजी ज्यों ही दुलहिन का मुख निरखने लगते, त्यों ही बच्चे हँसकर भाग जाते। थोड़ी देर बाद फिर लड़कों की मंडली जुट जाती और खेती की जाती। बड़ी मेहनत से खेत जोते-बोए और पटाए जाते। फसल तैयार होते देर न लगती और बच्चे हाथों-हाथ फसल काटकर उसे पैरों से रौंद डालते और कसोरे का सूप बनाकर, ओसाकर मिट्टी के दीये के तराजू पर तौलकर राशि तैयार कर देते थे। इसी बीच बाबूजी आकर पूछ लेते कि इस साल की खेती कैसी रही, भोलानाथ? तब बच्चे खेत-खलिहान छोड़कर हँसते हुए भाग जाते थे।
आम की फसल के समय कभी-कभी खूब आँधी आती है। आँधी समाप्त हो जाने पर बच्चे बाग की ओर दौड़ पड़ते और चुन-चुनकर घुले आम खाते थे। एक दिन आँधी आने पर आकाश काले बादलों से ढक गया। मेघ गरजने लगे और बिजली कौंधने लगी। बरखा बंद होते ही बाग में बहुत-से बिच्छू नजर आए। बच्चे डरकर भाग चले। बच्चों में बैजू बड़ा ढीठ था। बीच में मूसन तिवारी मिल गए। बैजू उन्हें देखकर चिढ़ाते हुए बोला-‘बुढ़वा बेइमान माँगे करैला का चोखा।’ शेष बच्चों ने बैजू के सुर-में-सुर मिलाकर यही चिल्लाना शुरू कर दिया।
तिवारी ने पाठशाला जाकर वहाँ से बैजू और भोलानाथ को पकड़ लाने के लिए चार लड़कों को भेजा। बैजू तो नौ-दो ग्यारह हो गया और भोलानाथ पकड़ा गया, जिसकी गुरुजी ने खूब खबर ली। बाबूजी ने जब यह हाल सुना, तो पाठशाला में आकर भोलानाथ को गोद में उठाकर पुचकारा। वह गुरुजी की खुशामद करके भोलानाथ को अपने साथ घर ले चले। रास्ते में भोलानाथ को साथी लड़कों का झुंड मिलन उन्हें नाचते और गाते देखकर भोलानाथ अपना रोना-धोना भूलकर बाबूजी की गोद से उतरकर लड़कों की मंडली में मिलकर उनकी पन-सुर अलापने लगा।
एक टीले पर जाकर बच्चे चूहों के बिल में पानी डालने लगे। कुछ ही देर में सब थक गए। तब तक बिल में से एक साँप निकल आया, जिसे देखकर रोते-चिल्लाते सब बेतहाशा भागे। भोलानाथ की सारी देह लहूलुहान हो गई। पैरों के तलवे काँटों से छलनी हो गए। वह दौड़ा हुआ आया और घर में घुस गया। उस समय बाबूजी बैठक के ओसारे में हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। उन्होंने भोलानाथ को बहुत पुकारा, पर भोलानाथ उनकी आवाज़ अनसुनी करके माँ के पास जाकर उसके आँचल में छिप गया। भोलानाथ को डर से काँपते देखकर माँ ज़ोर से रोने लगी और सब काम छोड़ बैठी। झटपट हल्दी पीसकर भोलानाथ के घावों पर थोपी गई। भोलानाथ के मुँह से डर के कारण “साँप” तक नहीं निकल पा रहा था। चिंता के मारे माँ का बुरा हाल था। इस बीच बाबूजी ने आकर भोलानाथ को माँ की गोद से लेना चाहा, किंतु भोलानाथ ने माँ के आँचल को नहीं छोड़ा।
शब्दार्थ
खरचे- व्यय | अँचल-आँचल | तड़के-सवेरे | लिलार-ललाट |
भभूत-राख | झुँझलाकर-खीज कर | रमाने-लगाने | पोथी-धार्मिक ग्रंथ |
त्रिपुंड- माथे पर लगाए जाने वाला तीन आड़ी रेखाओं का तिलक | आचमनी-पीने के काम आने वाला चम्मच जैसा बर्तन | कसोरे-मिट्टी का बना छिछला कटोरा | अँठई- कुत्ते के शरीर में चिपके रहने वाले छोटे कीड़े |
विराजमान-उपस्थित | शिथिल-ढीला | पछाड़ना-हराना | उतान- पीठ के बल लेटना |
गोरस – दूध | सानना-मिलाना | ठौर-स्थान | बोघना- भिगो देना |
मरदुए-आदमी | महतारी-माता | काठ-लकड़ी | कड़वा तेल-सरसों का तेल |
बोथना-लथपथ करना | बाट जोहना-प्रतीक्षा करना | सरकंडा-नुकीली घास | चँदोआ- छोटा शामियाना |
मुँहड़े-ऊपर का गोल मुँह | ज्योनार-दावत | पंगत-पंक्ति | जीमने-भोजन करना |
तंबूरा-एक प्रकार का वाद्ययंत्र | अमोले-आम का उगता हुआ पौधा | कुल्हिए- मिट्टी का लोटा | ओहार-परदे के लिए डाला हुआ कपड़ा |
मोट-चमड़े का बना थैला | ठिठककर-चौंककर | बरोही- पथिक | रहरी-अरहर |
छितराई-फैल गई | चिरौरी-विनती | अलापना-बोलना | पराई पीर-दूसरों का दुःख: छलनी होना-छिल जाना |
बेतहाशा-अत्यधिक जोश से | ओसारा-बरामदा | अमनिया- शुद्ध/साफ़ | कुहराम मचाना-हायतौबा करना |
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