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पाठ की रूपरेखा
सूरदास द्वारा रचित ‘सूरसागर” के “भ्रमरगीत” से यहाँ चार पद लिए गए हैं। श्रीकृष्ण ने मथुरा जाकर गोपियों को कोई संदेश नहीं भेजा, जिस कारण गोपियों की विरह वेदना और बढ़ गई। श्रीकृष्ण ने अपने मित्र उद्धव के माध्यम से गोपियों के पास निर्गुण ब्रह्म एवं योग का संदेश भेजा, ताकि गोपियों की पीड़ा को कम किया जा सके। गोपियाँ श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं, इसलिए उन्हें निर्गुण ब्रह्म एवं योग का संदेश पसंद नहीं आया। तभी एक भौंरा यानी भ्रमर उड़ता हुआ वहाँ आ पहुँचा, गोपियों ने व्यंग्य (कटाक्ष) के द्वारा उद्धव से अपने मन की बातें कहीं। इसलिए उद्धव और गोपियों का संवाद “भ्रमरगीत” नाम से प्रसिद्ध है। गेपियों ने व्यंग्य करते हुए उद्धव को भाग्यशाली कहा है, क्योंकि वे श्रीकृष्ण के सान्निध्य में रहने के बावजूद उनसे प्रेम नहीं करते और इसका प्रमाण है उद्धव द्वारा दिया गया योग साधना का उपदेश। गोपियाँ योग साधना को स्वयं के लिए व्यर्थ बताती हैं। साथ ही, उन्होंने श्रीकृष्ण को उनका राजधर्म भी याद दिलाया है।
कवि-परिचय
हिंदी साहित्य की भक्तिकालीन काव्यधारा के कवि सूरदास का जन्म 1478 ई. में सीही नामक गाँव में हुआ था। कुछ विद्वानू उनका जन्मस्थान मथुरा के निकट रुनकता या रेणुका क्षेत्र को मानते हैं। सूरदास मंदिर में भजन-कीर्तन करते थे, जिसके कारण उनकी ख्याति जगह-जगह फैल गई। सूरदास जन्म से नेत्रहीन थे या बाद में नेत्रहीन हुए इसके निश्चित प्रमाण नहीं मिलते। वह महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य थे। सूरदास के तीन लोकप्रिय ग्रंथ- सूरसागर, साहित्य लहरी और सूरसारावली हैं। सूरदास ने कृष्णलीला संबंधी पदों की रचना सूरसागर में की, जो कि उनकी लोकप्रियता का प्रमुख आधार है। सूरदास के सभी पद गायन शैली में लिखे गए है। वे श्रृंगार और “वात्सल्य ” रस के कवि माने जाते हैं। सूरदास की भाषा सहज, स्वाभाविक व माधुर्य से परिपूर्ण ब्रजभाषा है, जिनमें अलंकारों का प्रयोग अत्यंत सुंदर ढंग से किया गया है। सूरदास का निधन 1583 ई. में पारसौली में हुआ।
पदों का भावार्थ
पहला पद
शब्दार्थ
| ऊधौ-उद्धव | अपरस-अछूता | तगा-धागा/बंधन | नाहिन-नहीं | 
| बड़भागी-भाग्यवान | सनेह-स्नेह | अनुरागी-प्रेम से भरा हुआ | पुरइनि पात-कमल का पत्ता | 
| हौ-हो | दागी-दाग/धब्बा | ज्यौं-जैसे | माहँ-बीच में | 
| ताकौं-उसको | प्रीति – नदी-प्रेम की नदी | पाउँ-पैर | बोरयौ-डुबोया | 
| बोरयौ-डुबोया | परागी-मुग्ध होना | अबला-बेचारी नारी | भोरी-भोली | 
| गुर चाँटी ज्यौं पागी-जिस प्रकार चींटी गुड़ में लिपटती है | अति – बहुत | 
व्याख्या
दूसरा पद 
शब्दार्थ
| माँझ-अंदर में | अवधि-समय | अधार-आधार | आस-आशा | 
| आवन-आने की | बिथा-व्यथा/दुः:ख | जोग सँदेसनि-योग के संदेशों को | बिरहिनि-वियोग में जीने वाली | 
| बिरह दही-विरह की आग में जल रही हैं | हुतीं-थीं | गुहारि-रक्षा के लिए पुकारना | जितहिं तैं-जहाँ से | 
| उत तैं-उधर से | धार-योग की धारा | धीर-चैर्य | धरहिं-धारण करें/रखें | 
| मरजादा-मर्यादा: लही-रही | 
व्याख्या
तीसरा पद 
शब्दार्थ
| हरि-श्रीकृष्ण | हारिल-ऐसा पक्षी | जो अपने पैरों में लकड़ी दबाए रहता है | लकरी-लकड़ी | 
| क्रम-कार्य | नंद-नंदन-नंद का पुत्र कृष्ण | उर-हृदय | पकरी-पकड़ी | 
| दृढ़-मज़बूती से/दृढ़तापूर्वक | दिवस-निसि-दिन-रात | करुई-कड़वी | ककरी-ककडी | 
| जोग-योग का संदेश | सु-वहः ब्याधि-रोग | तिनहिं-उनको | मन चकरी-जिनका मन स्थिर नहीं रहता | 
| जक री-रटती रहती हैं | 
व्याख्या
चौथा पद
शब्दार्थ
| पढ़ि आए-पढ़कर/सीखकर आए | मधुकर- भौंरा , गोपियों द्वारा उद्धव के लिए प्रयुक्त संबोधन | हुते-थे | पठाए-भेजा | 
| आगे के-पहले के | पर हित-दूसरों की भलाई के लिए | डोलत धाए -घूमते-फिरते थे | फेर-फिर से | 
| पाइहैं-चाहिए | आपुन-अपनों पर | अनीति-अन्याय | 
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